सुनील केशव देवधर आकाशवाणी के चन्द गिने-चुने अधिकारियों में से एक हैं, जिनकी पहचान संस्था के अन्दर जितना कर्मठ, लगनशील और सर्जक प्रस्तोता के रूप में है; उतना ही उसके बाहर संवेदनशील कवि-साहित्यकार और गुणी व्यक्ति के रूप में. वे हमेशा नया करने के लिए तत्पर रहते हैं. वे पढाकू हैं, मेहनती हैं और बेहतरीन आवाज़ के मालिक भी. मित्र हैं, और ये मित्रता 'तू तू, मैं मैं' की हदों को भी छूती है, इसलिए अनौपचारिक भी है. नौकरी के लम्बे हसीन पल साथ बिताएं हैं, जिनमें वैचारिक विमर्श भी शामिल है.
हाल में ही सुनील देवधर का एक नया सर्जनात्मक रूप उनके द्वारा सृजित एल्बम 'एक पल का मधुमास' (ऋतुओं कि कहानी : गीतों की ज़बानी) में दिखाई देता है. इसकी संकल्पना, निर्मिती, गीत, लेखन और निवेदन- सब सुनील देवधर का है. संगीत संयोजन केदार दिवेकर और परीक्षित ढ्वले का है.
इस एल्बम में कुल आठ गीत हैं, जो अलग-अलग रंगों में ऋतुओं की कहानी गाते हैं.
एल्बम के प्रथम गीत के पूर्व निवेदन में सुनील की उदात्त और गूंजती आवाज़ बताती है कि इस देश में समय का विभाजन विभिन्न ऋतुओं के आधार पर हुआ है. इस दृष्टि से हर ऋतू एक नए वर्ष की शुरुआत मानी जा सकती है. ये एक नई दृष्टि है. ये गीत कहरवा ताल में राग हंसध्वनि पर आधारित है-
"चलो मिल स्वागत करें सहर्ष,
कि आया है नववर्ष."
इस गीत में गायकी के चमत्कार के साथ बांसुरी का अभिनव प्रयोग हुआ है, जो आलाप के साथ और भी ऊर्जस्वित होता है. इसके अंतरे की धुन में मेलोडी के अन्दर रिदम का सृजन बेहद आकर्षक ढंग से किया गया है और तराने का अद्भुत विकास इस गीत की समाप्ति को एक नया अंदाज़ देता है.
भारतीय परंपरा में चैत्र मास से नववर्ष का आरम्भ माना जाता है, जिसका प्रतिनिधि है बसंत.
"आया फिर सुखमय बसंत,
फैली मधुगंध फिर अनंत."
फैली मधुगंध फिर अनंत."
राग गौड़ सारंग की अभिव्यक्ति लिए ये गीत सितार और बांसुरी के लाक्षणिक प्रयोगों से ओतप्रोत है. इसमें सितार के साथ बांसुरी का एक अंतर्लाप चलता है, जिसकी गायन-पृष्ठभूमि में हार्मोनी का प्रयोग इसे विशिष्ट बनाता है. साथ ही, इस गीत में counter melody का अद्भुत प्रयोग हुआ है.
इसके बाद आता है फाल्गुन मास. दादरा ताल के छंद और राग नट भैरव की छाया से प्रारंभ गीत- "फागुनी मौसम के गीत ये सुहाने, फगवाडे सब आये मिलकर गाने" में ताल-वाद्यों का अद्भुत संयोजन है. इस गीत में फागुनी मौसम की अलमस्ती है, बहार है, उत्साह है और तेजस्विता है.
एल्बम का चौथा गीत है, "रंग उडे लाल और नीला केसरिया है आज". राजस्थानी बीट के रंगों में रंगा ये होली गीत राग वृन्दावनी सारंग और राग जोग के सम्मिश्रण से उपजता है. ये गीत लोकसंगीत को प्रतिध्वनित करता हुआ एक विशिष्ट चित्रपट का सृजन करता है. इस लोक फाग में सृजन, रिदम और बीट्स का लालित्यपूर्ण सृजन है जो ग्रामीण श्रृंगार की उत्सवधर्मिता को साकार करने में सक्षम है. इस गीत की विशिष्टता है, शास्त्रीय संगीत के तत्त्वों का लोकरस में सुगम रूपांतरण जिससे मेलोडी और माधुर्य का श्रृंगार रस बरसता है.
एल्बम के पांचवें गीत में भी उत्सवधर्मिता है, पर उसमें वैश्विकता का रंग भी चढा है. ये रंग है समता का, रंगभेद मिटाकर सबको एक रंग में रंग जाने का. यही जीवन का सरस संगीत है.
"रंगों का मौसम है, रंगों का साथ है;
सुधियों के आँगन में रस की बरसात है".
राग भैरवी की छाया लिए इस गीत में थिरकन है, छुअन है, सिहरन है, आरजुएं हैं, तमन्नाएँ हैं और है दिलों के करीब होने का अहसास. इसमें बांसुरी की तान और रिदम के झकोरों के बीच गीतों के कोमल स्वर कहीं अंदर, दूर तक छू जाते हैं. इस गीत में बोलों के प्रवाह को रोककर फिर गति देने की तर्ज़ में नवीनता, जिसमें रिदम को बेहतरीन तरीके से समन्वित किया गया है.
ऐसे रंग-भरे मदमस्त मौसम के बाद प्रकृति का रूप बदलता है. आ जाता है बूंदों के बरसने का हरियाला मौसम. जेठ-दुपहरी के बाद आकाश में बादलों का मंडराना और मन का पुलकित होकर इन्द्रधनुषी हो जाना अभिव्यक्त हुआ है इस गीत में-
"छाये सघन घन सावन के,
मन मन के मनभावन के".
गीत का prelute सितार पर राग देस से आरम्भ होता है. इस गीत की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि इसमें भूमिका, मुखडा, interludes और अंतरा एकदम अनुस्यूत लगते हैं, जिसमें आधुनिकता के साथ शास्त्रीयता का अद्भुत संगम प्रस्तुत किया गया है. इसमें रिदम का प्रयोग अंतर्लाप कि तरह हुआ है. अंतरे में शब्दों की पुनरावृत्ति के साथ पूरे गीत में सितार का प्रयोग अत्यंत मनोहारी है. गीत के अंत में बांसुरी की तान के साथ तराने का उपयोग बड़े ही सुन्दर ढंग से किया गया है.
वर्षा के बाद करवट बदलते मौसम में शरद् का प्रवेश होता है. आश्विन-कार्तिक मास में शरद् का चन्द्र प्रेम की गीतांजलि गाने लगता है. राग मिश्र खमाज आधारित गीत- "शरद् की फैली छटा, नील नभ शांत है,"- पाश्चात्य बीट्स पर आधारित है, जिसे गिटार के कॉर्ड्स के साथ समन्वयित किया गया है. शैली 'कैरोल गान' की तरह है और इसमें प्रवाह, गति और तीव्रता का स्वाभाविक संगम है. इस गीत में कांगो के बीट्स, गिटार के कॉर्ड्स और इसके साथ हमिंग और हार्मोनी आकर्षक मेलोडी का सृजन करता है. गीत सुनकर लगता है जैसे नीरवता में सुरों की नदी कलकल करती बहती जा रही हो. अपनी सम्पूर्णता में ये गीत अभिभूत करने वाला है.
"बीत गया मैं एक वर्ष हूँ,
कैसे कटे हैं दिन न पूछो;
मेरे अंतर के प्रश्नों का,
अब मुझसे उत्तर न पूछो."
मौसम सरे ख़त्म हुए, रंगों के, बूंदों के, सुगंधों के. वर्ष समाप्त होने को आया. मन अपने आप से पूछता है-बीते वर्ष में क्या पाया, क्या खोया ? फिर से एक नया वर्ष सामने है. ऐसे में ये गीत बीते हुए वर्ष की पूरी कहानी, बीते वर्ष की ज़बानी पेश करता है.
राग दरबारी की छाया लिए इस गीत में जीवन का दृष्टिकोण अभिव्यक्त हुआ है, जिसमें हलके आर्केस्ट्रेशन के साथ स्वर की मेलोडी दिल को छूने के साथ-साथ हलकी-सी कसक भी देती है. इस गीत की धुन सीधी-सादी है, पर इसका प्रभाव अत्यंत गहरा है, जो बीते समय की याद को दर्दीला अभिव्यक्ति दे पाने में सक्षम है.
कुल मिलाकर एल्बम के सभी गीतों का स्वर रचनात्मक और वैविध्यपूर्ण है. इन गीतों में सुनील देवधर का संवेदनशील कवि-रूप तो अभिव्यक्त हुआ ही है, निवेदन में उनके स्वर की प्रांजलता और सच्चाई गीतों के आंतरिक लय को प्रकट कर पाने में समर्थ है.
संगीतकार-द्वय केदार दिवेकर और परीक्षित ढवले ने एल्बम के लिए पूरे elegance और smoothness से काम किया है. यही कारण है कि इसके सभी गीतों में मेलोडी और लालित्य का श्रुतिमधुर सम्मिश्रण है.
संगीत और साहित्य को मिलाकर सर्जनात्मक चिंतन और लेखन एक दुरूह प्रक्रिया है, जो टीम-वर्क कि मांग करती है. इसमें दुखद पहलू ये है कि इस तरह की रचनात्मकता आम जन तो क्या, विशिष्ट और चिंतनशील लोगों तक भी नहीं पहुँच पाती. शुभकामना है कि सुनील देवधर की ये कृति विशिष्ट और आम - सबके लिए सुलभ हो ताकि इस तरह की सर्जना और भी हो सके.
वर्षा के बाद करवट बदलते मौसम में शरद् का प्रवेश होता है. आश्विन-कार्तिक मास में शरद् का चन्द्र प्रेम की गीतांजलि गाने लगता है. राग मिश्र खमाज आधारित गीत- "शरद् की फैली छटा, नील नभ शांत है,"- पाश्चात्य बीट्स पर आधारित है, जिसे गिटार के कॉर्ड्स के साथ समन्वयित किया गया है. शैली 'कैरोल गान' की तरह है और इसमें प्रवाह, गति और तीव्रता का स्वाभाविक संगम है. इस गीत में कांगो के बीट्स, गिटार के कॉर्ड्स और इसके साथ हमिंग और हार्मोनी आकर्षक मेलोडी का सृजन करता है. गीत सुनकर लगता है जैसे नीरवता में सुरों की नदी कलकल करती बहती जा रही हो. अपनी सम्पूर्णता में ये गीत अभिभूत करने वाला है.
"बीत गया मैं एक वर्ष हूँ,
कैसे कटे हैं दिन न पूछो;
मेरे अंतर के प्रश्नों का,
अब मुझसे उत्तर न पूछो."
मौसम सरे ख़त्म हुए, रंगों के, बूंदों के, सुगंधों के. वर्ष समाप्त होने को आया. मन अपने आप से पूछता है-बीते वर्ष में क्या पाया, क्या खोया ? फिर से एक नया वर्ष सामने है. ऐसे में ये गीत बीते हुए वर्ष की पूरी कहानी, बीते वर्ष की ज़बानी पेश करता है.
राग दरबारी की छाया लिए इस गीत में जीवन का दृष्टिकोण अभिव्यक्त हुआ है, जिसमें हलके आर्केस्ट्रेशन के साथ स्वर की मेलोडी दिल को छूने के साथ-साथ हलकी-सी कसक भी देती है. इस गीत की धुन सीधी-सादी है, पर इसका प्रभाव अत्यंत गहरा है, जो बीते समय की याद को दर्दीला अभिव्यक्ति दे पाने में सक्षम है.
कुल मिलाकर एल्बम के सभी गीतों का स्वर रचनात्मक और वैविध्यपूर्ण है. इन गीतों में सुनील देवधर का संवेदनशील कवि-रूप तो अभिव्यक्त हुआ ही है, निवेदन में उनके स्वर की प्रांजलता और सच्चाई गीतों के आंतरिक लय को प्रकट कर पाने में समर्थ है.
संगीतकार-द्वय केदार दिवेकर और परीक्षित ढवले ने एल्बम के लिए पूरे elegance और smoothness से काम किया है. यही कारण है कि इसके सभी गीतों में मेलोडी और लालित्य का श्रुतिमधुर सम्मिश्रण है.
संगीत और साहित्य को मिलाकर सर्जनात्मक चिंतन और लेखन एक दुरूह प्रक्रिया है, जो टीम-वर्क कि मांग करती है. इसमें दुखद पहलू ये है कि इस तरह की रचनात्मकता आम जन तो क्या, विशिष्ट और चिंतनशील लोगों तक भी नहीं पहुँच पाती. शुभकामना है कि सुनील देवधर की ये कृति विशिष्ट और आम - सबके लिए सुलभ हो ताकि इस तरह की सर्जना और भी हो सके.