मंगलवार, 21 मई 2024

उपन्यास-अंश ‘ताली’ (किन्नरों की ज़िंदगी की सच्ची कहानी) : लेखक- डॉ. किशोर सिन्हा

                                                    


                                                        मेरे उपन्यास ‘ताली’ से....... (01)

‘‘मैं पैदा हुई तो मेरे स्ट्रक्चर में यह कहा गया कि लड़का हुआ है। फैमिली में बहुत सारी ख़ुशियां थीं। लड़का होने से एक फ़ैमिली को अलग ही ख़ुशी होती है। पर जब पता चला कि नहीं बेटा नहीं है, यह ट्रांसजेंडर पैदा हुआ है, तो समाज से छुपा के रखना बहुत ज़रूरी था; क्योंकि समाज में 1983 में वह एक्सेप्टेन्स नहीं था- एक किन्नर पैदा होना किसी के घर में। तो अपनी फैमिली से बिलॉन्ग करते हुए बहुत सारी चीज़ों को ‘सैक्रिफ़ाइस’ करना पड़ा एजुकेशन के लिए। उसी बीच में जैसे-जैसे बढ़ती गई मेरे अंदर की जो लड़की थी वह धीरे-धीरे जवानी की तरफ मुड़ गई। एक लड़की की जब मैच्योरिटी आती है, उसी तरह मेरी ज़िंदगी में भी मैच्योरिटी अंदर से आना शुरू हुई। मुझे आइब्रोज करना पसंद था, आईने के सामने खड़े रहकर लिपस्टिक लगाना.... ये, वो.... लड़कियों के कपड़े पहनना पसंद था....। उसके लिए बहुत बार मेरी फैमिली ने मुझे मारा-पीटा। ये सब घर में मेरे को फ़ेस करना पड़ा। पर एक टर्न आया कि नहीं, अब अपने अंदर की नारी को उसका हक़ दिलाऊंगी। तब उम्र के सोलह साल में मुझे अपनी फ़ैमिली से अलग होना पड़ा, यही कहते हुए कि अलविदा, क्योंकि ये मेरा समाज नहीं है। यह समाज मुझे कभी नहीं अपनाएगा, इसलिए मुझे अपने समाज के पास जाना चाहिए जो किन्नर समुदाय है।’’


                                                     मेरे उपन्यास ‘ताली’ से....... (02)


‘‘सोनिका....


यह सब अच्छा लगता था। खाना बनाना, फ्ऱेंड्स के साथ बैठकर, वह भी लड़कियों के ग्रुप में हम खेलते थे- सर पर दुपट्टा लेकर बैठना, शर्माना, चलते वक़्त कमर में लचक लाना। यह अलग ही बचपन था। पर जो बचपन हम जी रहे थे तो इस समाज ने भी कुछ ऐसे ताने कसे...  ‘‘ए गुड़..... ए मामू.... ए छक्का....’’ ऐसे ताने सुनते हुए हमारा बचपन एक तरह से छिन गया। बचपन की यादें बहुत आती हैं। जब हम दूसरे बच्चों को खेलते हुए देखते हैं.... लड़कियों को, लड़कों को.... तो हम कभी-कभी सोचते हैं कि हमारा बचपन भी एक था, जिसको आज हम ढूंढ़ते हैं। जब हम अपनी कम्युनिटी के बीच में बैठते हैं तो बचपन को जीने की पूरी कोशिश करते हैं, हम उस बचपन को याद करते हैं और उसको अच्छे पॉजिटिव ढंग से मिलाकर सोचते हैं, उसके साथ जीने का अधिकार हमको भी है और बच्चों की तरह।

आपके कई दोस्त होते हैं, बचपन की सहेलियां होती हैं.... ऐसे दोस्त, जो ट्रांसजेंडर नहीं है और जिन्होंने आपका साथ दिया है.....

मेरी लाइफ में तो स्कूल टाइम के फ़ैन हैं। अब जब उनको पता चला कि जो हमारे साथ पढ़ता था- वो आज एक मीडिया पर्सनैलिटी है तब उससे मेरा संबंध टूट चुका था, क्योंकि मैं एक किन्नर हूं। आज मैं हूं, अपना एक नाम है। तब मेरा एक्सेप्टेंस नहीं था, क्योंकि मैं किन्नर हूं और उसकी सोच का क्या। उसकी फैमिली उसको कहती थी कि उसके साथ मत घूमो.... कहीं उसके साथ मन मिल जाये तो तुम भी उसके जैसा ना बन जाओ। तो वह डर था जिससे वह हमसे खुल कर बात नहीं कर पाते थे। एक समय भारत आज़ादी के लिए लड़ रहा था; वैसे ही हम अपनी आज़ादी के लिए लड़ रहे थे कि हमें भी आज़ादी चाहिए, हम भी आज़ादी से जीना चाहते हैं। जब भारत का संविधान सब को आज़ादी से जीने का हक़ देता है... चाहे वो औरत हो या मर्द हो, जब वे जी सकते हैं तो किन्नर क्यों नहीं।.....’’ 


                                                 मेरे उपन्यास ‘ताली’ से....... (03)

सोेनिका

हम लोग हमेशा कहते हैं कि ‘गुरु ब्रह्मा... गुरु विष्णु....’, पर मेरे केस में ये ‘गुरु ब्रह्मा... गुरु विष्णु....’ नहीं रहा। पोस्ट ग्रेजुएशन के टाइम में वही गुरु लोग थे जो क़दम-क़दम पर मुझे नोच रहे थे कि आपको अगर पढ़ाई करनी है तो बेटा शाम को हमारे घर में आकर हमारा दिल बहलाओ। जब लोगों का दिल बहला सकती हो, ट्रेन में जा सकती हो तो हमारा दिल क्यों नहीं बहला सकती। हम भी पैसे देंगे। जिस प्रोफेसर को मैं गुरु मानती थी, वह जब मेरे शरीर का मज़ा ले रहा था, तब मैं सोचने लगी कि क्या मैं ग़लत हूं.... क्या मैं ग़लत चीज़ कर रही हूं.... क्या मैं ग़लत इंसान हूं या मेरी ग़लती है कि मैं पढ़ाई कर रही हूं। सोचती थी कि मुझे आज जिं़दगी में कुछ बनना है और एक अलग पहचान बनानी है तो हम आपके शारीरिक सुख के साधन ना बन के हम आपके समाज की मुख्यधारा में आ सकें। समाज में ही मुझे एक स्त्री-पुरुष ने जन्म दिया है। एक स्त्री-पुरुष मेरे मां-बाप हैं। उन्हीं की कोख से निकली हूं और उन्हीं के आंगन की मिट्टी हूं, तो उस मिट्टी की तुलसी की लाज मुझे भी रखनी आती है। मैं जब सिंगार करके निकलती, कॉलेज जाती तो लोग कहते, ‘‘देखो, आ गई.... आज किसका दिल बहलाएगी, आज किसके साथ जाएगी, आज किसकी कार में बैठकर जाएगी।’’ इतने सारे ताने कसे गए कि बाद में आदत हो गई कि हां चला,े यह नोच रहे हैं, नोचने दो.... समाज का काम है नोचना। जब एक स्त्री को नोचा जा सकता है तो मैं तो एक किन्नर हूं। मुझे नोच रहे हैं तो कुछ ग़लत नहीं कर रहे....। मैं तो कुछ ग़लत नहीं कर रही, क्योंकि मेरे अंदर भी एक नारी-शरीर ही तो है। 

आज आपका अपने परिवार से संबंध है या नहीं....

परिवार से हम पूरी तरह से अलग हो चुके हैं। मेरे रियल पेरेंट्स की डेथ हो चुकी है। बट, हां, जिन्होंने मुझे बेटी माना है, वह आज भी मेरे संपर्क में हैं। आज वह समाज में मेरे साथ चलते हैं और आज वही मेरा परिवार है; क्योंकि मेरे जो रियल पेरेंट्स थे, जिन्होंने मुझे जन्म दिया, उन्होंने अपने संस्कार के साथ मुझे पाल-पोस के दसवीं तक साथ दिया। मेरे पापा की यही कम्प्लेन्ट थी कि मेरा बेटा किन्नर कैसे हो गया और मेरे मम्मी को हमेशा ब्लेम किया जाता था कि यह मेरी औलाद नहीं है, यह कहीं और की औलाद है। पता नहींे किसका यह ले आई है हमारे घर में।


                                                मेरे उपन्यास ‘ताली’ से....... (04)


‘‘मेरी लाइफ़ में कुछ ऐसा हुआ..... मैं कभी भूल नहीं सकती। ये तब की बात है जब मेरे पास कोई जॉब नहीं था और मुझे ‘ट्रेन मांगना’ पड़ता था। उस वक्त वे मेरीे लाइफ़ में आए.... एजुकेशन होते हुए भी ट्रेन में जाकर वह करना पड़ता था.... कहते थे लोगों से कि ‘दे दे भैया’... ‘दे दे मामा’... लोगों से प्यार से जो भी मिलता था वह लेकर हम लोग चले आते थे।

तो उस वक्त ये वहां पर बैठे हुए थे ऊपर.... और उनके पास पैसा नहीं था। तो उन्होंने मेरे लोगों को बोला, ‘‘हम तीन दिन से भूखे हैं.... कुछ पैसे दो...।’’ मेरे चेले ने मुझे आवाज़ दिया कि गुरु देखिए, ये पैसा मांग रहे हैं। मैं गई, उन्हें देखा। उनसे पूछा कि क्यों मांग रहे हो पैसा.... तो उनका आन्सर था कि हम घर से भाग कर आये हैं.... अभी हमारे पास कोई सपोर्ट नहीं है.... हमको भूख लगी है और हमारे पास पैसा भी नहीं है....। उस वक्त़ मैंने उनको सपोर्ट किया.... खाना खिलाया। फिर वे बोले कि खाना खिला दिया तो एक छत का इंतजाम करा दो.... और मेरे लिए कोई जॉब भी दिला दो। मैं सोच में पड़ गई। सोचा, इनको कहीं शिफ़्ट करा देंगे.... सपोर्ट करेंगे....। मैं उन्हें घर ले आई। दो-तीन दिन मेरे घर में रहे। मैंने अपने एक फ्ऱेंड, जो एमबीए में मेरे साथ थे, उनसे बात की कि कुछ हो सकता है क्या.... किसी कॉल सेंटर में। मैंने उसके सीवी भी फॉरवर्ड कर दी। कुछ ही दिन में उसको कस्टमर-केयर में जॉब मिल गई।

मैंने कहा, ‘‘अब तेरे को जॉब मिल गई है.... सब कुछ मिल गया.... तू कहीं पर भी कमरा लेकर रह सकता है....’’ तो उसका आंसर था कि बाहर कहीं किराया देने से अच्छा कि मैं आपको दूंगा.... क्योंकि अभी मेरे हाथ में पैसा नहीं कि मैं अलग रह सकूं.....।

मैं क्या कहती....। फिर हम साथ-साथ रहने लगे। थोड़े दिनों में हममें ऐसी अंडरस्टैंडिंग आ गई कि हम एक-दूसरे को अच्छे से जानने लगे। हममें एक बॉन्डिंग आ गई। 

मेरे किन्नर होने से उन्हें कोई प्रॉब्लम नहीं थी। वह मेरे साथ रहते.... बिंदास घूमने जाते....। हमलोगों में सब कुछ था, सिर्फ सेक्सुअल रिलेशनशिप नहीं थे।

वैलेंटाइन डेपर उन्होंने मुझे प्रपोज किया कि मैं आपसे अलग नहीं होना चाहता.... आप ही के साथ रहना चाहता हूं.... आपसे शादी करना चाहता हूं....। मैंने कहा, ठीक है....। फिर हमने एक मंदिर में जाके शादी कर ली। अपनी फ़ैमिली में उन्होंने बताया कि हां, मैंने शादी की है। उसकी फ़ैमिली ने उस वक़्त एक्सेप्ट किया मुझे.... मैं तब अच्छा-ख़ासा हज़ार-पांच सौ  रोज़ कमा के ला रही थी। उनके बेटे की पूरी सैलरी उनके पास जाती थी..... उसका ख़र्चा तो कुछ था ही नहीं....।

बाद में उनकी बेटी की शादी आई तो उन्होंने बताया कि उनको सोने की ज़रूरत है। तो मेरे पास जो भी गोल्ड था मेरा, मैंने दे दिया कि जाओ, अपनी सिस्टर की शादी कराओ, आख़िर वो मेरी ननद है। लेकिन उस शादी में मुझे इनवाइट नहीं किया गया; क्योंकि आप समाज को कैसे बोलोगे कि हमारी बहू किन्नर है.... पर मुझे बहू का दर्ज़ा उन्होंने दिया.... अपनी फ़ैमिली में रखा, रेस्पेक्ट दिया। कहते हैं ना कि रिश्तेदार आख़िर रिश्तेदार होते हैं और हम दोनों ने शादी के दो साल बाद डिसाइड किया कि बच्चा एडॉप्ट करेंगे। तो हमने एक बच्चा एडॉप्ट किया। उसको जब घर लेकर आए तो प्रॉपर लीगल एडॉप्शन नहीं हो पा रहा था तो उसी टाइम में उसकी मौसी घर पर आई। मौसी उसकी मम्मी को भड़का दी कि पता नहीं ये किसका बच्चा उठा कर लाए हैं.... कैसा ख़ून होगा.... क्या होगा.... मतलब अनाप-शनाप बालने लगी.... 

  तबतक मैं धनबाद में जॉब करने लगी थी तो मेरे बारे में उसके मन में मिसअंडरस्टैंडिंग क्रियेट कर बोलने लग गई कि..... ‘‘वह तो शॉर्ट स्कर्ट पहन कर जाती है.... ब्लेजर्स पहन कर जाती है..... घर रात लेट से आती है.... कॉल सेंटर में क्या करती है... तेरे को पता है न..... कॉल सेंटर का नेचर तू तो जानता है ना.... तेरे साथ तो और लड़कियां भी काम करती हैं..... कैसे-कैसे रिलेशंस रहते हैं.....’’

मतलब की हमारे रिलेशन के बीच मिसअंडरस्टैंडिंग क्रियेट करने की कोशिश की गई। तो हर चीज़ की दवा होती है, पर शक की दवा नहीं होती। तो उनको मेरे पर शक होने लगा। मेरा लेट नाइट आना, मेरा लेट नाइट जाना मीटिंग के लिए, एक एच.आर.ओ. होने के नाते कभी-कभी क्लाइंट कॉल्स होते तो रात में मुझे कॉल सेंटर में रुकना पड़ता था। तो उसकी वजह से बहुत सारी इशूज मिसअंडरस्टैंडिंग की वजह से हमको सेपरेट होना पड़ा। ऑलमोस्ट छे-सात साल हो चुके हमें अलग हुए। पर आज जब मेरे आगे उनका नाम जुड़ा है, आज सबकुछ है, मीडिया में जब वे मुझे हर जगह देखते हैं..... गूगल में सर्च मारते हैं तो मेरा नाम दिखता है.... तो अब वे वापस आना चाहते हैं..... मेरी लाइफ़ में।

तो मैंने कहा, अब क्यों..... जब मुझे तुम्हारे सहारे की ज़रूरत थी तब तो तुमने मुझे सहारा नहीं दिया..... तब तो तुम मुझे छोड़ कर चले गए अपनी फ़ैमिली के साथ..... और ऐसे दोराहे पे छोड़ गए कि मैं डिप्रेशन में चली गई.... जॉब छूट गया और मैं फिर वापस उसी चौराहे पर आकर खड़ी हो गई, जहां पर मेरे को अपना तन बेच कर अपना पेट भरना था।....

और उसी तन बेचते वक्त़ मेरा रेप हो गया। मेरा रेप होने के बाद ना मुझे कोई सपोर्ट मिला गवर्नमेंट से, ना कोई मेरी केस फाइल हुई, ना मुझे डॉक्टर से सपोर्ट मिला..... मैं उस ब्लीडिंग हालत में दर-दर की ठोकरें खा रही थी। मैंने आपको कॉल किया, बट आपने रिस्पांस नहीं किया.... आपने.... आपकी मम्मी ने कहा, ‘‘रेप कैसे क्या हुआ.... मतलब मेरी बहन सही कह रही थी.... तू धंधा भी करती है....।’’

धंधे पर लाकर खड़ा किसने किया, आप ही ने किया। तो अब वापस मेरी ज़िन्दगी में तुम आओगे..... और वापस कोई आकर आपको कुछ बोल देगा, तो आप वापस मेरी लाइफ़ से वापस निकल जाओगे और फिर वापस मैं डिप्रेशन में आके, वापस वहीं चौराहे पर जाके खड़ी नहीं रहना चाहती हूं।....’’  -क्रमशः.....



बुधवार, 20 दिसंबर 2023

मेरी पुस्तक- ‘तीस साल लम्बी सड़क’ से......

 मेरी पुस्तक- तीस साल लम्बी सड़कसे......


मेरे बचपन के देखे घर में हमेशा एक नौकर भी रहा है। एक नौकर था, जिसका नाम था बच्चू’, पर घर में सब उसे बचुआकहकर पुकारते थे- मैं भी। वह मेरी हमउम्र था और अक्सर पतंग उडाने में वह मेरे लिए घुरइंयादेता था- यानी मैं पतंग और उचका लेकर खड़ा होता और वो छत के दूर एक कोने में जाकर पतंग को हाथ से हवा में लहरा देता; फिर तो पतंग अपने-आप रफ़्तार पकड़ लेती। चूंकि मुझे घर से बाहर जाकर गली के आवारा लड़कों के साथ खेलने की मनाही थी, इसलिए खेलने के सारे सरंजाम मेरे लिए बचुआ ही जुटाता- पतंग कटने पर मैं उससे पतंग मंगवाता, रंग-बिरंगे लट्टू मंगवाता और हर जगह मैं उसे अपने सहायक के तौर पर इस्तेमाल करता। हालांकि वह हमारे घर में काफ़ी दिनों से था पर एकाध बार चोरी करते हुए वो पकड़ा गया तो बाबूजी ने उसे निकाल दिया और उसके घर भेज दिया।

बचुआ के जाने के बाद तो सबको तकलीफ़ होने लगी। कहां सुबह-शाम बचुआ पानी लाओ’.... बचुआ मच्छरदानी लगाओ’... ‘बचुआ रजाई धूप में डाल’... ‘बचुआ जरा पैर दबा दे’... सबके हुक्म की तामील फ़ौरन होती थी और कहां उसके जाने के बाद सबको सारे काम ख़ुद करने पड़ रहे हैं।

मैं सोचता कि बचुआ के नहीं रहने से सबसे ज़्यादा तकलीफ़ मुझे होने वाली है, क्योंकि मेरे पतंग में घुरइंया अब कौन देगा... मेरे लिए पतंग कौन लायेगा या लट्टू लेकर पीछे-पीछे कौन चलेगा।

पर हम नौकरविहीन अधिक दिनों तक नहीं रह पाये, क्योंकि पता नहीं बाबूजी ने कि भइया ने एक दिन एक नये नौकर को अवतरित कराया जो देखने में क़रीब 20-22 साल का होगा। नाम तो उसका अब याद नहीं, लेकिन उसे रहने के लिए पीछे की तरफ़ के खपड़पोश के तीन कमरों में से, एक कमरा दे दिया गया था। शेष दो कमरों में बड़े-बड़े शादियों वाले ट्रंक, कुछ टूटे से बक्से, घुन खाई लकड़ी की एक अलमारी और ऐसे ही अगड़म-बगड़म सामान ठुंसा था।

मेरी स्मृति के अनुसार, वह गौर वर्ण, चौडा ललाट, तीखी ठुड्डी और कसरती शरीर वाला लगता था। देखने से वो किसी मंदिर का पुजारी या तंत्रसिद्ध व्यक्ति लगता था क्योंकि उसकी आंखों में एक अजीब क़िस्म का सम्मोहन था। कुछ ही दिनों में सभी को ये अनुभव हो गया कि इसका यहां टिकना मुश्किल है, क्योंकि एक तो किसी के बुलाने पर वह देर से आता, दूसरे काम कोई भी हो, उसे वह अपनी एक तरह की सुस्त चाल से निपटाता; पर जहां से भी उसे लेकर आये थे तो बिना वजह यों उसे निकाल भी तो नहीं सकते ना...!

वजहें जल्दी बनीं और दो बनीं। पहली वजह बनी जब मां उधर किसी काम से गई तो उसने इसे योगासन करते देखा। हालांकि मां ने हल्ला ये मचाया कि वो कोई तांत्रिक क्रिया में संलग्न था। करता वो योगासन ही था, क्योंकि बाद में हममें से हर कोई उसकी जांच कर आया और जांच-रिपोर्ट जब बाबूजी के पास पहंुची तो उन्होंने इसमें कोई ख़राबी नहीं मानते हुए उसे बाइज़्ज़त बरी कर दिया।

लेकिन उसके निकालने की दूसरी वजह ने उसे कोई मौक़ा नहीं दिया; हां इतना मुझे ज़रूर याद है कि इसका सूत्रधार मैं बना था। हुआ यूं कि जबसे मां ने कहा कि ‘‘हउ जाने कोन-कोन किरिया कर रहल बा’’, मैं उसकी जासूसी करने लग गया था। मैं जबतक घर में रहता, वो जहां जाता, मैं उसका पीछा किया करता। इतना ही नहीं, वो कभी छत पर कपड़े सुखाने जाता या बाथरूम-नहाने जाता तो मैं उसके कमरे में घुस जाता और उसके कपड़ों की तलाशी लेता- उसके कुर्ते की जेब, पाजामे का पॉकिट; यहां तक कि उसके धोए-तहाए हुए कपड़े को भी उलटता-पुलटता। कुछ दिनों तक मुझे कोई सफलता नहीं मिली और मैं हताश हो जासूसी के इस काम से तौबा करने ही वाला था कि एक दिन उसके कपड़ों के भीतर एक नायाब चीज़ मिल गई। वो मटमैले-से, मिट्टी में लिथड़े कोई चार-पांच भारी-भारी सिक्के थे। मैं उन्हें लेकर सीधे भागा बाबूजी के पास और उनके हाथ में सारे सिक्के पकड़ा दिए। बाबूजी ने मुन्ना भइया को बुलवाया। भइया ने आकर पानी से धो-धोकर उन सिक्कों को साफ़ करने की कोशिश की, पर वो पूरी तरह साफ़ नहीं हुए। लेकिन उनकी बातों से मुझे इतना ज़रूर पता लग रहा था कि वे सिक्के काफ़ी क़ीमती और अनमोल हैं। उसके बाद नौकर को बुलाया गया। उससे बहुत पूछा गया कि ये सिक्के उसे कहां मिले, पर उसने नहीं बताया तो नहीं बताया। उस समय पीछे के साइड में सेप्टिक टैंक बन रहा था, हो सकता है, उसकी खुदाई के दौरान निकला हो; पर ऐसा होता तो पहले इसपर मज़दूरों का ध्यान पड़ता। जो भी हो, उस सिक्के का रहस्य उस नौकर की विदाई के साथ ही दफ़न हो गया, क्योंकि उसके बाद घर में कभी न मैंने उन सिक्कों को कहीं देखा, न ही किसी की ज़बान से उसकी कोई चर्चा सुनी।

                                                                       (मेरी पुस्तक तीस साल लम्बी सड़कसे.....)

सोमवार, 11 दिसंबर 2023

समीक्षा: उपन्यास ‘ताली’- लेखक- डॉ किशोर सिन्हा; समीक्षक- डॉ प्रतिभा जैन

 

समीक्षा: उपन्यास ताली

लेखक- डॉ किशोर सिन्हा

                  डॉ प्रतिभा जैन


…… हूँ ब्रह्म की संतान

फिर क्यों ? अञ्चींन्हीं सृष्टि में

रहती हूं तुम्हारे आस-पास

क्यूँ ? फिर रहती अनजानी...

 

रक्त-मांस-आत्मा से

तुझमें... मुझमें फर्क नहीं

फिर क्यों ? घर-आँगन में

खुद ठहर पाती नहीं...

 

भूल जाते मां-बाप भैया-भाभी

दर-दर ठोकर खाती हूं

भीख मांगकर, दे आशीष   

जीवन यापन करती हूं

 

गूंजता चहुं-ओर स्वर  

किम् नर:, किम् नर:

क्या तुम नर हो ? या नारी ?  

किन्नर... किन्नर... ताली... ताली... 

                              इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने की ईमानदार कोशिश है उपन्यास ताली”. लेखक डॉ. किशोर सिन्हा ने स्वभावत: इसे नए शिल्प के साथ रचा है. उपन्यास में सीधे-सीधे प्रश्न है और उतने ही तीखे-तीखे उत्तर जो पाठकों के लिए अश्रुत-पूर्व तो हैं ही... चौंकाते भी हैं; परिणामत: हम सत्य के उजाले में, पीड़ा के एकांत-अंधेरों में छरछराती चीख़ों से स्तब्ध रह जाते है, रूँध जाता हैं कंठ हमारा, मूक हो जाती है वाणी हमारी. 

                              आह ! जो परिवार का बच्चा है भाई-बहन, चाचा-मामा-ताऊ हो सकता था, उसे जीते जी पदच्युत करके भुला देते है... भुला देते है उसका नाम, मिटा देते हैं अपनों के बीच से उसका अस्तित्व... उसकी छाया अपवित्र हो जाती है. उसका नाम स्वयं से जोड़ने पर हम लज्जित होते है. 

                              तथापि परित्यक्ता का जीवन जीते वृहन्नला, किन्नर, किंपुरुष, नामर्द, हिजड़ा, छक्का, मामा का संबोधन भी उन्हें तोड़ नहीं पाता. उनका भी एक परिवार है दूर... कहीं दूर बसा हुआ, जो उन्हें अपनाते हैं. तथाकथित गुरु ही उनकी शरण है. उनकी भी इच्छाएं हैं, स्वप्न है. वे जानते हैं संबंधों को प्रगाढ़ता से निभाना, टूट कर जुड़ जाना. वे गटक लेते हैं अपनी उपेक्षा को... निराशा में भी उठ खड़े होते हैं. सह लेते हैं चोट विधाता की...

                              हाँ अब वे धैर्य से पहचान रहे हैं अपना अस्तित्व, अनेकों ने पकड़ ली है शिक्षा की लाठी. वे सहारा बनते हैं डगमगाते समाज के लोगों का, वे कर रहे हैं नौकरी उच्च पदों पर, जी रहे हैं बेपरवाह स्वाभिमान से अपना जीवन. बिना थके लड़ रहे हैं अपने होने का युद्ध... चल रहे हैं अपने लक्ष्य की ओर, आपसे बस इतनी गुजारिश है कि आप उनके रास्ते में रोड़े न बने, उपहास न करें. अगर हो सके तो उन्हें उबार लें. ताली उनकी पहचान नहीं... मनुष्य होना उनकी पहचान है.                

                              इन सभी परिस्थितियों की पड़ताल डॉ. सिन्हा जी ने सश्रम प्रत्यक्ष रूप से की है. इस रूप में उनका उपन्यास काल्पनिक या बुद्धि-विलास का परिचायक नहीं, वरन् ठोस धरातल पर नंगे पैरों में छाले लिए, आंखों में प्रश्नों की बौछार लिए अपने ही बंधुओं की कथा है.

                              ये सच है कि यह यक्ष-प्रश्न बनकर हमारे खड़ा है, उत्तर अभी तक अनुत्तरित है. डॉ. सिन्हा को साधुवाद कि उन्होंने इन अलक्ष्य जिंदगी को प्रकाशित करने का प्रयत्न किया, अब इस उजाले में पाठक की बारी है उनके प्रश्नों का हल ढूंढने की. शुभमस्तु !

                                                                                                                                डॉ प्रतिभा जैन




रविवार, 10 दिसंबर 2023

MY BOOK-TEES SAAL LAMBI SADAK

 


मेरी पुस्तक- तीस साल लम्बी सड़कसे......

कड़ी-01

शब्दों का आकाश

यों मेरा बचपन कोई इतना दूसरों के बचपन से अलग भी नहीं था। उसमें भी किलकारियां थीं, शरारतें थीं, खेलकूद था, पढ़ाई थी और था अम्मा-बाबूजी के साथ, भाइयों का कठोर अंकुश। मेरा घर से बाहर जाकर आवारा लड़कों के साथ उछलकूद मचाना, लट्टू और गोली-कंचे खेलना, पतंग उडा़ना किसी को पसंद नहीं था। मुहल्ले के लड़के थे भी एक-से-एक बदमाश। पूरे दिन किसी न किसी से उनकी लड़ाई होती रहती थी और शाम होते-होते एक-दूसरे की मांएं लड़ने आ जाती थीं। पटना में यों मगही बोली जाती है, पर पटना सिटी की भाषा थोड़ी अजीब है। वहां हर नाम के साथ वालगाने का रिवाज़ है- जैसे डलडलवा, नरेसवा, चुनमुनवा और स्त्रीलिंग में जमनिया, कमलिया आदि। पर कुछ स्त्रीप्रधान नामों में पुरुषवाचक प्रत्यय वाजोड़ के पुकारने की परंपरा भी है- जैसे, मंजुवा या मंजुआ, रेणुआ आदि। पर डलडलवा, नरेसवा, चुनमुनवा-जैसे लड़के दिनभर उधम मचाते और पूरा मुहल्ला उनसे त्रस्त रहता। अब ऐसे लड़कों के साथ खेलने के लिए भले घर के लड़के को कौन जाने देता।

असल में दीवान मुहल्ला में पढ़ने-लिखने की संस्कृति बहुत दिखी नहीं। हालांकि वो मुहल्ला कभी पढ़ने-लिखने वालों की वजह से ही जाना जाता था, लेकिन मैंने अपने होशो-हवास में जो देखा, शायद वो उस मुहल्ले के पतन का समय था। वहां बाहर से आकर किसिम-किसिम के लोग बस गए थे और उनमें से ज़्यादातर लोगों के पास कोई काम नहीं होने से या तो वे दिनभर ताश खेलकर अपना समय काटते या ताड़ी पीकर घर में सोए पड़े मिलते। गंगा ब्रिजमें जिन लोगों की ज़मीन गई थी, उन्हें पातो का बाग़और हमाममें एलॉटमेंटहुआ था, पर उनके नहीं रहने से उन ज़मीनों पर अवांछित लोगों ने क़ब्ज़ा कर झाोपड़ियां बना ली थीं और किसी की हिम्मत नहीं थी कि वे अपनी ज़मीन उनसे ख़ाली करा सकें। शाम होते जब गलियों में अंधेरा पसरने लगता, उन झुग्गी-झोपड़ियों से हाथों में पानी का डब्बा या बोतल लिए जवान-बूढ़ी औरतों की कतारें, हमारे घरों के आसपास के खुले नालों पर अपनी शर्म को आगे से बड़ी बेशर्मी से ढंक, अपने घरों की समस्याएं गपिआने के साथ-साथ, अपनी शंकाओं से भी निवृŸा होने लग  जातीं। इस काम के लिए उन झुग्गी-झोपड़ियों से आने वाले बच्चों के लिए शर्म-जैसी चीज़ की कोई अहमियत नहीं थी, लिहाज़ा वे किसी भी वक़्त उन नालों के किनारे बिराजमान हो जाते और नालों में ही नहीं, उसके अगल-बगल काफ़ी गंदगी फैला कर उठते। पर इस मामले में, या किसी भी मामले में उन अवांछित लोगों से कोई वांछित सवाल नहीं पूछा जा सकता था।

 

एक वाकया मुझे याद आ रहा है। हमेशा की तरह मैदान के एक कोने में रघुवीर भइया और उनकी रमीकी मंडली जमी थी। मैदान के बीचोबीच क्रिकेट की पिचबनी थी, जिसपर हम प्रैक्टिस करते थे। हमसब भी स्टंप गाड़कर खेलने की तैयारी कर चुके थे। तभी रमी टीममें थोड़ी खलबली हुई। सिराज़ुद्दीन भइया मैदान से गुज़र रहे एक आदमी की ओर इशारा कर कह रहे थे, ‘‘ये तो डकैत रमेसर है... सरकार इसपर ईनाम भी रखी है... इसको पकड़ना चाहिए...।’’ उन्होंने हमलोगों को इशारा किया। हमलोगों ने स्टंप उखाड़ा और बैट-स्टंप लेकर सिराज़ुद्दीन भइया के पीछे-पीछे डकैत रमेसर को पकड़ने उसका पीछा करने लगे। हम लगभग उसके बिल्कुल क़रीब पहुंच चुके थे कि उसे हमारी भनक लग गई और अचानक उसने पिस्तौल निकाला और हमारे ऊपर तान दिया। हम सब जहां थे, वहीं ठिठक गए। फिर वो मुड़ा और भागने लगा, हम भी उसके पीछे भागे, लेकिन इस बार वो पिस्तौल तान कर खड़ा हो गया और बोला, ‘‘सिराजु़द्दीन, तुमको हमरा डर नहीं है का रे... भाग जा, नहीं तो तेरा पूरा ख़ानदान साफ़ हो जायेगा...।’’ ये सुनकर हमलोग तो रुक ही गए, सिराज़ भइया भी सहम गए। इसके बाद हमारी हिम्मत जवाब दे गई और हम लौट तो आये पर रमेसर का आतंक इतना था कि उसके बाद सिराज़ भइया महीनों अपने घर में नहीं सोते थे; ताश और रमी का खेल भी भइया-लोगों ने महीनों बंद रखा था। बाद में सुना कि रमेसर एनकाउंटर में मारा गया। पर इसमें कोई दो राय नहीं कि उस समय मुहल्ले में अपराध और अपराधी धीरे-धीरे पनपने लगे थे।

फिर भी, ऐसा नहीं कि वहां रहकर और पढ़कर किसी ने कोई मकाम या ऊंचा ओहदा नहीं हासिल किया। ऐसे लोग दो क़िस्म के थे- एक, जो पटना या बिहार से बाहर चले गए और दूसरे, जो रहे तो दीवान मुहल्ला में ही, पर सुबह-शाम की चौराहेबाज़ी और बैठकी-बतोलाबाज़ी छोड़ परिश्रम किया तथा सफलता हासिल की।.......

शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

व्यष्टि से समष्टि की यात्रा : फेड इन, फेड आउट.... ** योगेश त्रिपाठी

  

         

 

व्यष्टि से समष्टि की यात्रा :  फेड इन, फेड आउट

 

                           

                                 ** योगेश त्रिपाठी

 

 

          न यह किसी फिल्म स्टार की आत्मकथा है, न ही किसी पॉलिटीशियन की। न यह कोई बड़े स्कैम की कथा है और न ही खुशवंत सिंह की महिला मित्रों की कथा। भला क्या रोचकता हो सकती है एक सरकारी कर्मचारी के कार्यालयीन अनुभवों पर आधारित साढ़े तीन सौ पेज के आत्मकथात्मक उपन्यास में

          कोरोना काल में जब यह मोटी पुस्तक डाक से मिली तो सैनिटाइजर स्प्रे करके दो दिन तक रखा रहने दिया। फिर पढ़ने की हिम्मत जुटाई। यूं ही बीच में कहीं पन्ने पलटे तो अपना और अपने नाटकों का जिक्र देखा। रुचि जगी और उन पृष्ठों को पढ़ डाला। तुरंत लेखक मित्र को फोन किया और आठ दस मिनट तक हंसता बतियाता रहा। फिर एक छोटे अंतराल के बाद पुस्तक को पढ़ना शुरू किया तो अपने ऊपर अविश्वास हो आया। क्या मैं अब भी मोटी किताबें पढ़ सकता हूं ? लिखने में व्यस्त होने के कारण, कई सालों से रेफरेंस की जरूरत पड़ने पर ही मैं कोई किताब पढ़ता आया हूं।

          एक सरकारी अधिकारी के नौकरी के अनुभवों पर आधारित पुस्तक, जिसे उपन्यास कहा जा सकता है, इतनी रोचक हो सकती है, पहली बार महसूस हुआ। फेसबुक में शेयर इसलिए कर रहा हूं ताकि मैं अपने मित्रों को बता सकूं कि इस पुस्तक में मात्र लेखक के निजी अनुभव नहीं हैं बल्कि कहूं तो यह पुस्तक हाल में गुजरे तीस-बत्तीस सालों में कई जद्दोजहदों को उजागर करने वाला दस्तावेज है। रूटीन के अभ्यस्तों और नवाचार के इच्छुकों के बीच की जद्दोजहद, कला के क्षेत्र में एक प्रशासनिक अधिकारी का कलाप्रेमी बने रहने की जद्दोजहद, विषम से विषम परिस्थिति में भी अपनी संवेदनाओं को बचाए रखने की जद्दोजहद, कौटुंबिक उलझनों के धक्कों को सहते हुए अपने परिवार को बचाने की जद्दोजहद, कई स्तरों पर लेखक ने अपने संघर्ष को बयां किया है जो बहुत ही रोचक और बिना किसी रोमांच के भी रोमांचक है।

          एक बार पुनः कहना चाहता हूं कि इस पुस्तक की सबसे बड़ी सफलता यह है कि इसे पढ़कर यह नहीं लगता कि यह केवल लेखक का संघर्ष है। यह, इस गुजरे कालखंड में एक-एक आदमी का संघर्ष है। लेखक स्वयं सरकारी राजपत्रित अधिकारी रहा है परंतु उसकी व्यथा, एक ठेले वाले की भी व्यथा लगती है। मेरी समझ में नितांत व्यक्तिगत अनुभवों से समष्टि का बोध कराना लेखक की सर्वोच्च सफलता है।

 

                                                                              @  योगेश त्रिपाठी

                                                               नाटककार और रंग-निर्देशक

                                                                              रीवा (मध्य प्रदेश)

 

पुस्तक - फेड इन, फेड आउट

लेखक – डॉ. किशोर सिन्हा

प्रकाशक - संस्कृति प्रकाशन, मुजफ्फरपुर (बिहार)

पृष्ठ संख्या – ३७५, मूल्य - रु. ५००/-

 

उपन्यास-अंश ‘ताली’ (किन्नरों की ज़िंदगी की सच्ची कहानी) : लेखक- डॉ. किशोर सिन्हा

                                                                                                              मेरे उपन्यास ‘ताली’ से....... ...