'आपकी गज्जो'- एकल नाटक-राजीव रंजन श्रीवास्तव
राजीव रंजन श्रीवास्तव पटना रंगमंच में एक जाना-पहचाना नाम हैं। वे लगभग एक दशक से लेखक, निर्देशक और अभिनेता के रूप में सक्रिय हैं तथा हमेशा अभिनव प्रयोगों में संलग्न रहते हैं।
राजीव रंजन श्रीवास्तव पटना रंगमंच में एक जाना-पहचाना नाम हैं। वे लगभग एक दशक से लेखक, निर्देशक और अभिनेता के रूप में सक्रिय हैं तथा हमेशा अभिनव प्रयोगों में संलग्न रहते हैं।
अभी-अभी एक एकल नाटक उन्होंने मुझे पढने के लिए दिया- 'आपकी गज्जो'। लगभग ४० मिनट की अवधि का बनेगा ये नाटक। ये अभी ताज़ा है, प्रस्तुति के लिहाज़ से भी और अपने कथ्य के हिसाब से भी..... शायद अद्भुत...!
ये नाटक एक ऐसी लड़की- गजाला- की आत्मस्वीकृति है, जो हमारे आपके घरों के आसपास- कहीं भी मिल जाएँगी, नाम उनके चाहे कुछ भी हों। लेकिन गजाला की तरह हर लड़की विशिष्ट नहीं बन पाती, क्योंकि शायद वो सदियों से चली आ रही रवायतों और रस्मों के हाथों दफन कर दी जाती है।
इसके विपरीत इस गजाला के जीवन में अभाव है, दुःख है, बेबसी का पसरा हुआ सन्नाटा है; फिर भी होश है, हुनर है और हौसला है कुछ कर गुजरने का। गजाला प्रतीक है उन तमाम लड़कियों की जो आज भी अभावों और मुफलिसी में जीती हुई अपने सपनो की तितलियों को रोज़ मरते देखने के लिए अभिशप्त हैं-
"मुहल्ले में दूसरों को मदरसे जाते देख,किताबें पढ़ते देख
मुझे भी ललक होती की काश
मैं भी मदरसे जाती...."
बदलते समाज और उसकी विसंगतियों के बीच गजाला का अंतर्द्वंद्व एक समूची पीढी के दर्द का बयान है, जहाँ कुछ कर पाने का उत्साह है तो बहुत कुछ नहीं कर पाने की बेबसी भी-
"मेरा भी मन होता की बुल्ला भाई की तरह मैं भीमकतब में झूम-झूम कर पढूं
इसीलिए तो मैं बैठती थी
मस्जिद की सीढियों पर।
घर आकर बगैर किताबों के
झूठ-मूठ नक़ल करती आपकी गजाला
मेरा खूब मन करता की पढूं, पढूं और पढ़ती ही जाऊँ।"
लेकिन इस बेबसी के भीतर जो थोड़ा-बहुत भी कर पाने का जज्बा है, वो ही गजाला को विशिष्ट बनाता है-
"अब्बू , मैं पढूंगी....
अब्बू, हदीस में भी है, कुरान में भी हजरत मोहम्मद साहब ने कहा है-
'तलाव्वुलिल्मे अलाकुल्ले मुस्लिम'
अब्बू बोल उठे-
'इसका मतलब बेटा...?'
मैंने कहा-
'तालीम और इल्म सारे मुस्लिमों के लिए लाज़मी है
इस बार अब्बू थोड़े संयत थे- बोले-
'बेटा, हमारे यहाँ केवल लड़के मकतब - मदरसा जाते हैं ,
लडकियां नहीं.
'लेकिन मैं तो पढूंगी '
उनहोंने कुछ पल सोचा ,
फिर अच्छा कहकर निकल पड़े ".
गजाला के इस जज्बे की सच्चाई है, उसके बचपन के अभाव में, उसकी अम्मी के गुज़र जाने के वजूहात में....
"एक दिन तो मैंने कई तरह की आँखें बना डालीं
हंसती- मुस्कुराती आँखें,
रोती हुई उदास आँखें ,
घबराई, बेचैन आँखें,
चुलबुली और शरारती आँखें...
गुस्साई और तमतमाई आँखें,
शरमाई और लजाई आँखें,
आँखें...आँखें...आँखें...
सैकडों तरह की आँखें बनीं...
उन आँखों में मैं सबकी आँखें खोजने लगी...
अब्बू की अम्मी को खोजती आँखें,
अम्मी की प्यार वाली आँखें,
सोहेल की, साबिर की, बुल्ला की...
साकिर चा की...
मास्साब की आँखें...."
"एक दिन तो मैंने कई तरह की आँखें बना डालीं
हंसती- मुस्कुराती आँखें,
रोती हुई उदास आँखें ,
घबराई, बेचैन आँखें,
चुलबुली और शरारती आँखें...
गुस्साई और तमतमाई आँखें,
शरमाई और लजाई आँखें,
आँखें...आँखें...आँखें...
सैकडों तरह की आँखें बनीं...
उन आँखों में मैं सबकी आँखें खोजने लगी...
अब्बू की अम्मी को खोजती आँखें,
अम्मी की प्यार वाली आँखें,
सोहेल की, साबिर की, बुल्ला की...
साकिर चा की...
मास्साब की आँखें...."
लेकिन इन सारे अभावों और गुर्बतों के बीच गजाला का संघर्ष और उसके 'बैक ड्रॉप' में वेदना का स्वर- 'शाहिद नहीं है' मोहब्बत के मुक़द्दस रूप से रु-बा-रु कराता है-
"आज भी याद है-
आर्ट कॉलेज की सीढियां ...जिसपर शाहिद के साथ घंटों बैठती
पीछे का जंगल, गंदा बड़ा-सा नाला
नामी-गिरामी चित्रकारों की पेंटिंग्स का बंद कमरा....
टाईपराइटर पर तक-तक करते क्लर्क,
पत्थरों को काट कर बनाये गए बाहरी परिसर में सोया कुत्ता...
कॉलेज को ताकता हॉस्टल
और हॉस्टल और कॉलेज के बीच लगे
बाएं से तीसरे पेड़ के नीचे
चाकू से उकेरा था हमनें
'गजाला............चौदह दिसम्बर, उन्नीस सौ ..........'
शाहिद नहीं मिला..."
प्रेम की ये पीर कहीं अन्दर तक चीरती हुई चली जाती है.
कुल मिलाकर ये एकल नाटक अपनी बिम्बधर्मिता में बहुत कुछ कह जाता है, जिसे संवेदना के स्तर पर ही पकडा जा सकता है, और शायद उससे कहीं ज्यादा अनुभव किया जा सकता है. बावजूद इसके एकल नाटक में अंतर्द्वद्व की तीव्रता को जिस कलात्मक चरमसीमा तक पहुंचाने की आवश्यकता होती है, इसमें वो घनीभूत होने से रह गयी है. ऐसा शायद इसलिए हुआ है की लेखक के सामने नाटक का एक लक्ष्य (मिशन) स्पष्ट है, जो एकाधिक स्थानों पर संदेशात्मक रूप में दिखाई भी देता है-
"अम्मी कुछ भी पढ़ी होतीं या उन्हें कुछ भी तालीम हासिल हुई होती
तो शायद अम्मी आज साथ होतीं."
"अब तो गजाला उन लड़कियों को
अलग से पढाने का जिम्मा भी लेती है
जो स्कूल जा पाने से लाचार हैं,
और जिनके यहाँ पढना भी बंदिश है"
**********************
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
comments