बुधवार, 20 दिसंबर 2023

मेरी पुस्तक- ‘तीस साल लम्बी सड़क’ से......

 मेरी पुस्तक- तीस साल लम्बी सड़कसे......


मेरे बचपन के देखे घर में हमेशा एक नौकर भी रहा है। एक नौकर था, जिसका नाम था बच्चू’, पर घर में सब उसे बचुआकहकर पुकारते थे- मैं भी। वह मेरी हमउम्र था और अक्सर पतंग उडाने में वह मेरे लिए घुरइंयादेता था- यानी मैं पतंग और उचका लेकर खड़ा होता और वो छत के दूर एक कोने में जाकर पतंग को हाथ से हवा में लहरा देता; फिर तो पतंग अपने-आप रफ़्तार पकड़ लेती। चूंकि मुझे घर से बाहर जाकर गली के आवारा लड़कों के साथ खेलने की मनाही थी, इसलिए खेलने के सारे सरंजाम मेरे लिए बचुआ ही जुटाता- पतंग कटने पर मैं उससे पतंग मंगवाता, रंग-बिरंगे लट्टू मंगवाता और हर जगह मैं उसे अपने सहायक के तौर पर इस्तेमाल करता। हालांकि वह हमारे घर में काफ़ी दिनों से था पर एकाध बार चोरी करते हुए वो पकड़ा गया तो बाबूजी ने उसे निकाल दिया और उसके घर भेज दिया।

बचुआ के जाने के बाद तो सबको तकलीफ़ होने लगी। कहां सुबह-शाम बचुआ पानी लाओ’.... बचुआ मच्छरदानी लगाओ’... ‘बचुआ रजाई धूप में डाल’... ‘बचुआ जरा पैर दबा दे’... सबके हुक्म की तामील फ़ौरन होती थी और कहां उसके जाने के बाद सबको सारे काम ख़ुद करने पड़ रहे हैं।

मैं सोचता कि बचुआ के नहीं रहने से सबसे ज़्यादा तकलीफ़ मुझे होने वाली है, क्योंकि मेरे पतंग में घुरइंया अब कौन देगा... मेरे लिए पतंग कौन लायेगा या लट्टू लेकर पीछे-पीछे कौन चलेगा।

पर हम नौकरविहीन अधिक दिनों तक नहीं रह पाये, क्योंकि पता नहीं बाबूजी ने कि भइया ने एक दिन एक नये नौकर को अवतरित कराया जो देखने में क़रीब 20-22 साल का होगा। नाम तो उसका अब याद नहीं, लेकिन उसे रहने के लिए पीछे की तरफ़ के खपड़पोश के तीन कमरों में से, एक कमरा दे दिया गया था। शेष दो कमरों में बड़े-बड़े शादियों वाले ट्रंक, कुछ टूटे से बक्से, घुन खाई लकड़ी की एक अलमारी और ऐसे ही अगड़म-बगड़म सामान ठुंसा था।

मेरी स्मृति के अनुसार, वह गौर वर्ण, चौडा ललाट, तीखी ठुड्डी और कसरती शरीर वाला लगता था। देखने से वो किसी मंदिर का पुजारी या तंत्रसिद्ध व्यक्ति लगता था क्योंकि उसकी आंखों में एक अजीब क़िस्म का सम्मोहन था। कुछ ही दिनों में सभी को ये अनुभव हो गया कि इसका यहां टिकना मुश्किल है, क्योंकि एक तो किसी के बुलाने पर वह देर से आता, दूसरे काम कोई भी हो, उसे वह अपनी एक तरह की सुस्त चाल से निपटाता; पर जहां से भी उसे लेकर आये थे तो बिना वजह यों उसे निकाल भी तो नहीं सकते ना...!

वजहें जल्दी बनीं और दो बनीं। पहली वजह बनी जब मां उधर किसी काम से गई तो उसने इसे योगासन करते देखा। हालांकि मां ने हल्ला ये मचाया कि वो कोई तांत्रिक क्रिया में संलग्न था। करता वो योगासन ही था, क्योंकि बाद में हममें से हर कोई उसकी जांच कर आया और जांच-रिपोर्ट जब बाबूजी के पास पहंुची तो उन्होंने इसमें कोई ख़राबी नहीं मानते हुए उसे बाइज़्ज़त बरी कर दिया।

लेकिन उसके निकालने की दूसरी वजह ने उसे कोई मौक़ा नहीं दिया; हां इतना मुझे ज़रूर याद है कि इसका सूत्रधार मैं बना था। हुआ यूं कि जबसे मां ने कहा कि ‘‘हउ जाने कोन-कोन किरिया कर रहल बा’’, मैं उसकी जासूसी करने लग गया था। मैं जबतक घर में रहता, वो जहां जाता, मैं उसका पीछा किया करता। इतना ही नहीं, वो कभी छत पर कपड़े सुखाने जाता या बाथरूम-नहाने जाता तो मैं उसके कमरे में घुस जाता और उसके कपड़ों की तलाशी लेता- उसके कुर्ते की जेब, पाजामे का पॉकिट; यहां तक कि उसके धोए-तहाए हुए कपड़े को भी उलटता-पुलटता। कुछ दिनों तक मुझे कोई सफलता नहीं मिली और मैं हताश हो जासूसी के इस काम से तौबा करने ही वाला था कि एक दिन उसके कपड़ों के भीतर एक नायाब चीज़ मिल गई। वो मटमैले-से, मिट्टी में लिथड़े कोई चार-पांच भारी-भारी सिक्के थे। मैं उन्हें लेकर सीधे भागा बाबूजी के पास और उनके हाथ में सारे सिक्के पकड़ा दिए। बाबूजी ने मुन्ना भइया को बुलवाया। भइया ने आकर पानी से धो-धोकर उन सिक्कों को साफ़ करने की कोशिश की, पर वो पूरी तरह साफ़ नहीं हुए। लेकिन उनकी बातों से मुझे इतना ज़रूर पता लग रहा था कि वे सिक्के काफ़ी क़ीमती और अनमोल हैं। उसके बाद नौकर को बुलाया गया। उससे बहुत पूछा गया कि ये सिक्के उसे कहां मिले, पर उसने नहीं बताया तो नहीं बताया। उस समय पीछे के साइड में सेप्टिक टैंक बन रहा था, हो सकता है, उसकी खुदाई के दौरान निकला हो; पर ऐसा होता तो पहले इसपर मज़दूरों का ध्यान पड़ता। जो भी हो, उस सिक्के का रहस्य उस नौकर की विदाई के साथ ही दफ़न हो गया, क्योंकि उसके बाद घर में कभी न मैंने उन सिक्कों को कहीं देखा, न ही किसी की ज़बान से उसकी कोई चर्चा सुनी।

                                                                       (मेरी पुस्तक तीस साल लम्बी सड़कसे.....)

सोमवार, 11 दिसंबर 2023

समीक्षा: उपन्यास ‘ताली’- लेखक- डॉ किशोर सिन्हा; समीक्षक- डॉ प्रतिभा जैन

 

समीक्षा: उपन्यास ताली

लेखक- डॉ किशोर सिन्हा

                  डॉ प्रतिभा जैन


…… हूँ ब्रह्म की संतान

फिर क्यों ? अञ्चींन्हीं सृष्टि में

रहती हूं तुम्हारे आस-पास

क्यूँ ? फिर रहती अनजानी...

 

रक्त-मांस-आत्मा से

तुझमें... मुझमें फर्क नहीं

फिर क्यों ? घर-आँगन में

खुद ठहर पाती नहीं...

 

भूल जाते मां-बाप भैया-भाभी

दर-दर ठोकर खाती हूं

भीख मांगकर, दे आशीष   

जीवन यापन करती हूं

 

गूंजता चहुं-ओर स्वर  

किम् नर:, किम् नर:

क्या तुम नर हो ? या नारी ?  

किन्नर... किन्नर... ताली... ताली... 

                              इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने की ईमानदार कोशिश है उपन्यास ताली”. लेखक डॉ. किशोर सिन्हा ने स्वभावत: इसे नए शिल्प के साथ रचा है. उपन्यास में सीधे-सीधे प्रश्न है और उतने ही तीखे-तीखे उत्तर जो पाठकों के लिए अश्रुत-पूर्व तो हैं ही... चौंकाते भी हैं; परिणामत: हम सत्य के उजाले में, पीड़ा के एकांत-अंधेरों में छरछराती चीख़ों से स्तब्ध रह जाते है, रूँध जाता हैं कंठ हमारा, मूक हो जाती है वाणी हमारी. 

                              आह ! जो परिवार का बच्चा है भाई-बहन, चाचा-मामा-ताऊ हो सकता था, उसे जीते जी पदच्युत करके भुला देते है... भुला देते है उसका नाम, मिटा देते हैं अपनों के बीच से उसका अस्तित्व... उसकी छाया अपवित्र हो जाती है. उसका नाम स्वयं से जोड़ने पर हम लज्जित होते है. 

                              तथापि परित्यक्ता का जीवन जीते वृहन्नला, किन्नर, किंपुरुष, नामर्द, हिजड़ा, छक्का, मामा का संबोधन भी उन्हें तोड़ नहीं पाता. उनका भी एक परिवार है दूर... कहीं दूर बसा हुआ, जो उन्हें अपनाते हैं. तथाकथित गुरु ही उनकी शरण है. उनकी भी इच्छाएं हैं, स्वप्न है. वे जानते हैं संबंधों को प्रगाढ़ता से निभाना, टूट कर जुड़ जाना. वे गटक लेते हैं अपनी उपेक्षा को... निराशा में भी उठ खड़े होते हैं. सह लेते हैं चोट विधाता की...

                              हाँ अब वे धैर्य से पहचान रहे हैं अपना अस्तित्व, अनेकों ने पकड़ ली है शिक्षा की लाठी. वे सहारा बनते हैं डगमगाते समाज के लोगों का, वे कर रहे हैं नौकरी उच्च पदों पर, जी रहे हैं बेपरवाह स्वाभिमान से अपना जीवन. बिना थके लड़ रहे हैं अपने होने का युद्ध... चल रहे हैं अपने लक्ष्य की ओर, आपसे बस इतनी गुजारिश है कि आप उनके रास्ते में रोड़े न बने, उपहास न करें. अगर हो सके तो उन्हें उबार लें. ताली उनकी पहचान नहीं... मनुष्य होना उनकी पहचान है.                

                              इन सभी परिस्थितियों की पड़ताल डॉ. सिन्हा जी ने सश्रम प्रत्यक्ष रूप से की है. इस रूप में उनका उपन्यास काल्पनिक या बुद्धि-विलास का परिचायक नहीं, वरन् ठोस धरातल पर नंगे पैरों में छाले लिए, आंखों में प्रश्नों की बौछार लिए अपने ही बंधुओं की कथा है.

                              ये सच है कि यह यक्ष-प्रश्न बनकर हमारे खड़ा है, उत्तर अभी तक अनुत्तरित है. डॉ. सिन्हा को साधुवाद कि उन्होंने इन अलक्ष्य जिंदगी को प्रकाशित करने का प्रयत्न किया, अब इस उजाले में पाठक की बारी है उनके प्रश्नों का हल ढूंढने की. शुभमस्तु !

                                                                                                                                डॉ प्रतिभा जैन




रविवार, 10 दिसंबर 2023

MY BOOK-TEES SAAL LAMBI SADAK

 


मेरी पुस्तक- तीस साल लम्बी सड़कसे......

कड़ी-01

शब्दों का आकाश

यों मेरा बचपन कोई इतना दूसरों के बचपन से अलग भी नहीं था। उसमें भी किलकारियां थीं, शरारतें थीं, खेलकूद था, पढ़ाई थी और था अम्मा-बाबूजी के साथ, भाइयों का कठोर अंकुश। मेरा घर से बाहर जाकर आवारा लड़कों के साथ उछलकूद मचाना, लट्टू और गोली-कंचे खेलना, पतंग उडा़ना किसी को पसंद नहीं था। मुहल्ले के लड़के थे भी एक-से-एक बदमाश। पूरे दिन किसी न किसी से उनकी लड़ाई होती रहती थी और शाम होते-होते एक-दूसरे की मांएं लड़ने आ जाती थीं। पटना में यों मगही बोली जाती है, पर पटना सिटी की भाषा थोड़ी अजीब है। वहां हर नाम के साथ वालगाने का रिवाज़ है- जैसे डलडलवा, नरेसवा, चुनमुनवा और स्त्रीलिंग में जमनिया, कमलिया आदि। पर कुछ स्त्रीप्रधान नामों में पुरुषवाचक प्रत्यय वाजोड़ के पुकारने की परंपरा भी है- जैसे, मंजुवा या मंजुआ, रेणुआ आदि। पर डलडलवा, नरेसवा, चुनमुनवा-जैसे लड़के दिनभर उधम मचाते और पूरा मुहल्ला उनसे त्रस्त रहता। अब ऐसे लड़कों के साथ खेलने के लिए भले घर के लड़के को कौन जाने देता।

असल में दीवान मुहल्ला में पढ़ने-लिखने की संस्कृति बहुत दिखी नहीं। हालांकि वो मुहल्ला कभी पढ़ने-लिखने वालों की वजह से ही जाना जाता था, लेकिन मैंने अपने होशो-हवास में जो देखा, शायद वो उस मुहल्ले के पतन का समय था। वहां बाहर से आकर किसिम-किसिम के लोग बस गए थे और उनमें से ज़्यादातर लोगों के पास कोई काम नहीं होने से या तो वे दिनभर ताश खेलकर अपना समय काटते या ताड़ी पीकर घर में सोए पड़े मिलते। गंगा ब्रिजमें जिन लोगों की ज़मीन गई थी, उन्हें पातो का बाग़और हमाममें एलॉटमेंटहुआ था, पर उनके नहीं रहने से उन ज़मीनों पर अवांछित लोगों ने क़ब्ज़ा कर झाोपड़ियां बना ली थीं और किसी की हिम्मत नहीं थी कि वे अपनी ज़मीन उनसे ख़ाली करा सकें। शाम होते जब गलियों में अंधेरा पसरने लगता, उन झुग्गी-झोपड़ियों से हाथों में पानी का डब्बा या बोतल लिए जवान-बूढ़ी औरतों की कतारें, हमारे घरों के आसपास के खुले नालों पर अपनी शर्म को आगे से बड़ी बेशर्मी से ढंक, अपने घरों की समस्याएं गपिआने के साथ-साथ, अपनी शंकाओं से भी निवृŸा होने लग  जातीं। इस काम के लिए उन झुग्गी-झोपड़ियों से आने वाले बच्चों के लिए शर्म-जैसी चीज़ की कोई अहमियत नहीं थी, लिहाज़ा वे किसी भी वक़्त उन नालों के किनारे बिराजमान हो जाते और नालों में ही नहीं, उसके अगल-बगल काफ़ी गंदगी फैला कर उठते। पर इस मामले में, या किसी भी मामले में उन अवांछित लोगों से कोई वांछित सवाल नहीं पूछा जा सकता था।

 

एक वाकया मुझे याद आ रहा है। हमेशा की तरह मैदान के एक कोने में रघुवीर भइया और उनकी रमीकी मंडली जमी थी। मैदान के बीचोबीच क्रिकेट की पिचबनी थी, जिसपर हम प्रैक्टिस करते थे। हमसब भी स्टंप गाड़कर खेलने की तैयारी कर चुके थे। तभी रमी टीममें थोड़ी खलबली हुई। सिराज़ुद्दीन भइया मैदान से गुज़र रहे एक आदमी की ओर इशारा कर कह रहे थे, ‘‘ये तो डकैत रमेसर है... सरकार इसपर ईनाम भी रखी है... इसको पकड़ना चाहिए...।’’ उन्होंने हमलोगों को इशारा किया। हमलोगों ने स्टंप उखाड़ा और बैट-स्टंप लेकर सिराज़ुद्दीन भइया के पीछे-पीछे डकैत रमेसर को पकड़ने उसका पीछा करने लगे। हम लगभग उसके बिल्कुल क़रीब पहुंच चुके थे कि उसे हमारी भनक लग गई और अचानक उसने पिस्तौल निकाला और हमारे ऊपर तान दिया। हम सब जहां थे, वहीं ठिठक गए। फिर वो मुड़ा और भागने लगा, हम भी उसके पीछे भागे, लेकिन इस बार वो पिस्तौल तान कर खड़ा हो गया और बोला, ‘‘सिराजु़द्दीन, तुमको हमरा डर नहीं है का रे... भाग जा, नहीं तो तेरा पूरा ख़ानदान साफ़ हो जायेगा...।’’ ये सुनकर हमलोग तो रुक ही गए, सिराज़ भइया भी सहम गए। इसके बाद हमारी हिम्मत जवाब दे गई और हम लौट तो आये पर रमेसर का आतंक इतना था कि उसके बाद सिराज़ भइया महीनों अपने घर में नहीं सोते थे; ताश और रमी का खेल भी भइया-लोगों ने महीनों बंद रखा था। बाद में सुना कि रमेसर एनकाउंटर में मारा गया। पर इसमें कोई दो राय नहीं कि उस समय मुहल्ले में अपराध और अपराधी धीरे-धीरे पनपने लगे थे।

फिर भी, ऐसा नहीं कि वहां रहकर और पढ़कर किसी ने कोई मकाम या ऊंचा ओहदा नहीं हासिल किया। ऐसे लोग दो क़िस्म के थे- एक, जो पटना या बिहार से बाहर चले गए और दूसरे, जो रहे तो दीवान मुहल्ला में ही, पर सुबह-शाम की चौराहेबाज़ी और बैठकी-बतोलाबाज़ी छोड़ परिश्रम किया तथा सफलता हासिल की।.......

शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

व्यष्टि से समष्टि की यात्रा : फेड इन, फेड आउट.... ** योगेश त्रिपाठी

  

         

 

व्यष्टि से समष्टि की यात्रा :  फेड इन, फेड आउट

 

                           

                                 ** योगेश त्रिपाठी

 

 

          न यह किसी फिल्म स्टार की आत्मकथा है, न ही किसी पॉलिटीशियन की। न यह कोई बड़े स्कैम की कथा है और न ही खुशवंत सिंह की महिला मित्रों की कथा। भला क्या रोचकता हो सकती है एक सरकारी कर्मचारी के कार्यालयीन अनुभवों पर आधारित साढ़े तीन सौ पेज के आत्मकथात्मक उपन्यास में

          कोरोना काल में जब यह मोटी पुस्तक डाक से मिली तो सैनिटाइजर स्प्रे करके दो दिन तक रखा रहने दिया। फिर पढ़ने की हिम्मत जुटाई। यूं ही बीच में कहीं पन्ने पलटे तो अपना और अपने नाटकों का जिक्र देखा। रुचि जगी और उन पृष्ठों को पढ़ डाला। तुरंत लेखक मित्र को फोन किया और आठ दस मिनट तक हंसता बतियाता रहा। फिर एक छोटे अंतराल के बाद पुस्तक को पढ़ना शुरू किया तो अपने ऊपर अविश्वास हो आया। क्या मैं अब भी मोटी किताबें पढ़ सकता हूं ? लिखने में व्यस्त होने के कारण, कई सालों से रेफरेंस की जरूरत पड़ने पर ही मैं कोई किताब पढ़ता आया हूं।

          एक सरकारी अधिकारी के नौकरी के अनुभवों पर आधारित पुस्तक, जिसे उपन्यास कहा जा सकता है, इतनी रोचक हो सकती है, पहली बार महसूस हुआ। फेसबुक में शेयर इसलिए कर रहा हूं ताकि मैं अपने मित्रों को बता सकूं कि इस पुस्तक में मात्र लेखक के निजी अनुभव नहीं हैं बल्कि कहूं तो यह पुस्तक हाल में गुजरे तीस-बत्तीस सालों में कई जद्दोजहदों को उजागर करने वाला दस्तावेज है। रूटीन के अभ्यस्तों और नवाचार के इच्छुकों के बीच की जद्दोजहद, कला के क्षेत्र में एक प्रशासनिक अधिकारी का कलाप्रेमी बने रहने की जद्दोजहद, विषम से विषम परिस्थिति में भी अपनी संवेदनाओं को बचाए रखने की जद्दोजहद, कौटुंबिक उलझनों के धक्कों को सहते हुए अपने परिवार को बचाने की जद्दोजहद, कई स्तरों पर लेखक ने अपने संघर्ष को बयां किया है जो बहुत ही रोचक और बिना किसी रोमांच के भी रोमांचक है।

          एक बार पुनः कहना चाहता हूं कि इस पुस्तक की सबसे बड़ी सफलता यह है कि इसे पढ़कर यह नहीं लगता कि यह केवल लेखक का संघर्ष है। यह, इस गुजरे कालखंड में एक-एक आदमी का संघर्ष है। लेखक स्वयं सरकारी राजपत्रित अधिकारी रहा है परंतु उसकी व्यथा, एक ठेले वाले की भी व्यथा लगती है। मेरी समझ में नितांत व्यक्तिगत अनुभवों से समष्टि का बोध कराना लेखक की सर्वोच्च सफलता है।

 

                                                                              @  योगेश त्रिपाठी

                                                               नाटककार और रंग-निर्देशक

                                                                              रीवा (मध्य प्रदेश)

 

पुस्तक - फेड इन, फेड आउट

लेखक – डॉ. किशोर सिन्हा

प्रकाशक - संस्कृति प्रकाशन, मुजफ्फरपुर (बिहार)

पृष्ठ संख्या – ३७५, मूल्य - रु. ५००/-

 

रविवार, 1 नवंबर 2009

एक पल का मधुमास


              सुनील  केशव देवधर आकाशवाणी के चन्द गिने-चुने अधिकारियों में से एक हैं, जिनकी पहचान संस्था के अन्दर जितना कर्मठ, लगनशील और सर्जक प्रस्तोता के रूप में है; उतना ही उसके बाहर संवेदनशील कवि-साहित्यकार और गुणी व्यक्ति के रूप में. वे हमेशा नया करने के लिए तत्पर रहते हैं. वे पढाकू हैं, मेहनती हैं और बेहतरीन आवाज़ के मालिक भी. मित्र हैं, और ये मित्रता 'तू तू, मैं मैं' की हदों को भी छूती है, इसलिए अनौपचारिक भी है. नौकरी के लम्बे हसीन पल साथ बिताएं हैं, जिनमें वैचारिक विमर्श भी शामिल है.
             
हाल में ही सुनील देवधर का एक नया सर्जनात्मक रूप उनके द्वारा सृजित एल्बम 'एक पल का मधुमास' (ऋतुओं कि कहानी : गीतों की ज़बानी)  में दिखाई देता है. इसकी संकल्पना, निर्मिती, गीत, लेखन और निवेदन- सब सुनील देवधर का है. संगीत संयोजन केदार दिवेकर और परीक्षित ढ्वले का है.
                  इस एल्बम में कुल आठ गीत हैं, जो अलग-अलग रंगों में ऋतुओं की कहानी गाते हैं.
                 
एल्बम के प्रथम गीत के पूर्व निवेदन में सुनील की उदात्त और गूंजती आवाज़ बताती है कि इस देश में समय का विभाजन विभिन्न ऋतुओं के आधार पर हुआ है. इस दृष्टि से हर ऋतू एक नए वर्ष की शुरुआत मानी जा सकती है.  ये एक नई दृष्टि है. ये गीत कहरवा ताल में राग हंसध्वनि पर आधारित है-

                  "चलो मिल स्वागत करें सहर्ष,
                   कि आया है नववर्ष."
इस गीत में गायकी के चमत्कार के साथ बांसुरी का अभिनव प्रयोग हुआ है, जो आलाप के साथ और भी ऊर्जस्वित होता है.  इसके अंतरे की धुन में मेलोडी के अन्दर रिदम  का सृजन बेहद आकर्षक ढंग से किया गया है और तराने का  अद्भुत विकास  इस  गीत की समाप्ति  को  एक नया अंदाज़ देता है.
             
भारतीय परंपरा में चैत्र मास से नववर्ष का आरम्भ माना जाता है, जिसका प्रतिनिधि है बसंत.
              "आया फिर सुखमय बसंत,                       
              फैली मधुगंध फिर अनंत."
राग गौड़ सारंग की अभिव्यक्ति लिए ये गीत सितार और बांसुरी के लाक्षणिक प्रयोगों से ओतप्रोत है. इसमें सितार के साथ बांसुरी का एक अंतर्लाप चलता है, जिसकी गायन-पृष्ठभूमि में हार्मोनी का प्रयोग इसे विशिष्ट बनाता है. साथ ही, इस गीत में counter melody  का अद्भुत प्रयोग हुआ है.
         
इसके बाद आता है फाल्गुन मास. दादरा ताल के छंद और राग नट भैरव की छाया से प्रारंभ गीत- "फागुनी मौसम के गीत ये सुहाने, फगवाडे सब आये मिलकर गाने" में ताल-वाद्यों का अद्भुत संयोजन है. इस गीत में फागुनी मौसम की अलमस्ती है, बहार है, उत्साह है और तेजस्विता है.
             
एल्बम का चौथा गीत है, "रंग उडे लाल और नीला केसरिया है आज". राजस्थानी बीट के रंगों में रंगा ये होली गीत राग वृन्दावनी सारंग और राग जोग के सम्मिश्रण से उपजता है. ये गीत लोकसंगीत को प्रतिध्वनित करता हुआ एक विशिष्ट चित्रपट का सृजन करता है. इस लोक फाग में सृजन, रिदम और बीट्स का लालित्यपूर्ण सृजन है जो ग्रामीण श्रृंगार की उत्सवधर्मिता को साकार करने में सक्षम है. इस गीत की विशिष्टता है, शास्त्रीय संगीत के तत्त्वों का लोकरस में सुगम रूपांतरण जिससे मेलोडी और माधुर्य का श्रृंगार रस बरसता है.


एल्बम के पांचवें गीत में भी उत्सवधर्मिता है, पर उसमें वैश्विकता का रंग भी चढा है. ये रंग है समता का, रंगभेद मिटाकर सबको एक रंग में रंग जाने का. यही जीवन का सरस संगीत है.
              "रंगों का मौसम है, रंगों का साथ है;
               सुधियों के आँगन में रस की बरसात है".
राग भैरवी की छाया लिए इस गीत में थिरकन है, छुअन है, सिहरन है, आरजुएं हैं, तमन्नाएँ हैं और है दिलों के करीब होने का अहसास. इसमें बांसुरी की तान और रिदम  के झकोरों के बीच गीतों के कोमल स्वर कहीं अंदर, दूर तक छू जाते हैं. इस गीत में बोलों के प्रवाह को रोककर फिर गति देने की तर्ज़ में नवीनता, जिसमें रिदम को बेहतरीन तरीके से समन्वित किया गया है.


ऐसे रंग-भरे मदमस्त मौसम के बाद प्रकृति का रूप बदलता है. आ जाता है बूंदों के बरसने का हरियाला मौसम. जेठ-दुपहरी के बाद आकाश में बादलों का मंडराना और मन का पुलकित होकर इन्द्रधनुषी हो जाना अभिव्यक्त हुआ है  इस गीत में-
                  "छाये सघन घन सावन के,
                   मन मन के मनभावन के".
गीत का prelute सितार पर राग देस से आरम्भ होता है. इस गीत की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि इसमें भूमिका, मुखडा, interludes  और अंतरा एकदम अनुस्यूत लगते हैं, जिसमें आधुनिकता के साथ शास्त्रीयता का अद्भुत संगम प्रस्तुत किया गया है. इसमें  रिदम का प्रयोग अंतर्लाप कि तरह हुआ है. अंतरे में शब्दों की पुनरावृत्ति  के साथ पूरे गीत में सितार का प्रयोग अत्यंत मनोहारी है. गीत के अंत में बांसुरी की तान के साथ तराने का उपयोग बड़े ही सुन्दर ढंग से किया गया है.


वर्षा के बाद करवट बदलते मौसम में शरद् का प्रवेश होता है. आश्विन-कार्तिक मास में शरद् का चन्द्र प्रेम की गीतांजलि गाने लगता है. राग मिश्र खमाज आधारित गीत- "शरद् की फैली छटा, नील नभ शांत है,"- पाश्चात्य बीट्स पर आधारित है, जिसे गिटार के कॉर्ड्स के साथ समन्वयित किया गया है. शैली 'कैरोल गान' की तरह है और इसमें प्रवाह, गति और तीव्रता का स्वाभाविक संगम है. इस गीत में कांगो के बीट्स, गिटार के कॉर्ड्स और इसके साथ हमिंग और हार्मोनी आकर्षक मेलोडी का सृजन करता है. गीत सुनकर लगता है जैसे नीरवता में सुरों की नदी कलकल करती बहती जा रही हो. अपनी सम्पूर्णता में ये गीत अभिभूत करने वाला है. 
                    
                    "बीत गया मैं एक वर्ष हूँ,
                     कैसे कटे हैं दिन न पूछो; 
                     मेरे अंतर के प्रश्नों का,
                     अब मुझसे उत्तर न पूछो."
मौसम सरे ख़त्म हुए, रंगों के, बूंदों के, सुगंधों के. वर्ष समाप्त होने को आया. मन अपने आप से पूछता है-बीते वर्ष में क्या पाया, क्या खोया ? फिर से एक नया वर्ष सामने है. ऐसे में ये गीत बीते हुए वर्ष की पूरी कहानी, बीते वर्ष की ज़बानी पेश करता है.
                     राग दरबारी की छाया लिए इस गीत में जीवन का दृष्टिकोण अभिव्यक्त हुआ है, जिसमें हलके आर्केस्ट्रेशन  के साथ स्वर की मेलोडी दिल को छूने  के साथ-साथ  हलकी-सी कसक भी देती है. इस गीत की धुन सीधी-सादी है, पर इसका प्रभाव अत्यंत गहरा है, जो बीते समय की याद को दर्दीला अभिव्यक्ति दे पाने में सक्षम है.


कुल मिलाकर एल्बम के सभी गीतों का स्वर रचनात्मक और वैविध्यपूर्ण है. इन गीतों में सुनील देवधर का संवेदनशील कवि-रूप तो अभिव्यक्त हुआ ही है, निवेदन में उनके स्वर की प्रांजलता और सच्चाई गीतों के आंतरिक लय को प्रकट कर पाने में समर्थ है.

                       संगीतकार-द्वय केदार दिवेकर और परीक्षित ढवले ने एल्बम के लिए पूरे elegance  और smoothness से काम किया है. यही कारण है कि इसके सभी गीतों में मेलोडी और लालित्य का श्रुतिमधुर सम्मिश्रण है.


संगीत और साहित्य को मिलाकर सर्जनात्मक चिंतन और लेखन एक दुरूह प्रक्रिया है, जो टीम-वर्क कि मांग करती है. इसमें दुखद पहलू ये है कि  इस तरह की रचनात्मकता आम जन तो क्या, विशिष्ट और चिंतनशील लोगों तक भी नहीं पहुँच पाती. शुभकामना है कि सुनील देवधर की ये कृति विशिष्ट और आम - सबके लिए सुलभ हो ताकि इस तरह की सर्जना और भी हो सके.

मेरी पुस्तक- ‘तीस साल लम्बी सड़क’ से......

  मेरी पुस्तक- ‘ तीस साल लम्बी सड़क ’ से...... मेरे बचपन के देखे घर में हमेशा एक नौकर भी रहा है। एक नौकर था , जिसका नाम था ‘ बच्चू ’, पर घर...