बुधवार, 20 दिसंबर 2023

मेरी पुस्तक- ‘तीस साल लम्बी सड़क’ से......

 मेरी पुस्तक- तीस साल लम्बी सड़कसे......


मेरे बचपन के देखे घर में हमेशा एक नौकर भी रहा है। एक नौकर था, जिसका नाम था बच्चू’, पर घर में सब उसे बचुआकहकर पुकारते थे- मैं भी। वह मेरी हमउम्र था और अक्सर पतंग उडाने में वह मेरे लिए घुरइंयादेता था- यानी मैं पतंग और उचका लेकर खड़ा होता और वो छत के दूर एक कोने में जाकर पतंग को हाथ से हवा में लहरा देता; फिर तो पतंग अपने-आप रफ़्तार पकड़ लेती। चूंकि मुझे घर से बाहर जाकर गली के आवारा लड़कों के साथ खेलने की मनाही थी, इसलिए खेलने के सारे सरंजाम मेरे लिए बचुआ ही जुटाता- पतंग कटने पर मैं उससे पतंग मंगवाता, रंग-बिरंगे लट्टू मंगवाता और हर जगह मैं उसे अपने सहायक के तौर पर इस्तेमाल करता। हालांकि वह हमारे घर में काफ़ी दिनों से था पर एकाध बार चोरी करते हुए वो पकड़ा गया तो बाबूजी ने उसे निकाल दिया और उसके घर भेज दिया।

बचुआ के जाने के बाद तो सबको तकलीफ़ होने लगी। कहां सुबह-शाम बचुआ पानी लाओ’.... बचुआ मच्छरदानी लगाओ’... ‘बचुआ रजाई धूप में डाल’... ‘बचुआ जरा पैर दबा दे’... सबके हुक्म की तामील फ़ौरन होती थी और कहां उसके जाने के बाद सबको सारे काम ख़ुद करने पड़ रहे हैं।

मैं सोचता कि बचुआ के नहीं रहने से सबसे ज़्यादा तकलीफ़ मुझे होने वाली है, क्योंकि मेरे पतंग में घुरइंया अब कौन देगा... मेरे लिए पतंग कौन लायेगा या लट्टू लेकर पीछे-पीछे कौन चलेगा।

पर हम नौकरविहीन अधिक दिनों तक नहीं रह पाये, क्योंकि पता नहीं बाबूजी ने कि भइया ने एक दिन एक नये नौकर को अवतरित कराया जो देखने में क़रीब 20-22 साल का होगा। नाम तो उसका अब याद नहीं, लेकिन उसे रहने के लिए पीछे की तरफ़ के खपड़पोश के तीन कमरों में से, एक कमरा दे दिया गया था। शेष दो कमरों में बड़े-बड़े शादियों वाले ट्रंक, कुछ टूटे से बक्से, घुन खाई लकड़ी की एक अलमारी और ऐसे ही अगड़म-बगड़म सामान ठुंसा था।

मेरी स्मृति के अनुसार, वह गौर वर्ण, चौडा ललाट, तीखी ठुड्डी और कसरती शरीर वाला लगता था। देखने से वो किसी मंदिर का पुजारी या तंत्रसिद्ध व्यक्ति लगता था क्योंकि उसकी आंखों में एक अजीब क़िस्म का सम्मोहन था। कुछ ही दिनों में सभी को ये अनुभव हो गया कि इसका यहां टिकना मुश्किल है, क्योंकि एक तो किसी के बुलाने पर वह देर से आता, दूसरे काम कोई भी हो, उसे वह अपनी एक तरह की सुस्त चाल से निपटाता; पर जहां से भी उसे लेकर आये थे तो बिना वजह यों उसे निकाल भी तो नहीं सकते ना...!

वजहें जल्दी बनीं और दो बनीं। पहली वजह बनी जब मां उधर किसी काम से गई तो उसने इसे योगासन करते देखा। हालांकि मां ने हल्ला ये मचाया कि वो कोई तांत्रिक क्रिया में संलग्न था। करता वो योगासन ही था, क्योंकि बाद में हममें से हर कोई उसकी जांच कर आया और जांच-रिपोर्ट जब बाबूजी के पास पहंुची तो उन्होंने इसमें कोई ख़राबी नहीं मानते हुए उसे बाइज़्ज़त बरी कर दिया।

लेकिन उसके निकालने की दूसरी वजह ने उसे कोई मौक़ा नहीं दिया; हां इतना मुझे ज़रूर याद है कि इसका सूत्रधार मैं बना था। हुआ यूं कि जबसे मां ने कहा कि ‘‘हउ जाने कोन-कोन किरिया कर रहल बा’’, मैं उसकी जासूसी करने लग गया था। मैं जबतक घर में रहता, वो जहां जाता, मैं उसका पीछा किया करता। इतना ही नहीं, वो कभी छत पर कपड़े सुखाने जाता या बाथरूम-नहाने जाता तो मैं उसके कमरे में घुस जाता और उसके कपड़ों की तलाशी लेता- उसके कुर्ते की जेब, पाजामे का पॉकिट; यहां तक कि उसके धोए-तहाए हुए कपड़े को भी उलटता-पुलटता। कुछ दिनों तक मुझे कोई सफलता नहीं मिली और मैं हताश हो जासूसी के इस काम से तौबा करने ही वाला था कि एक दिन उसके कपड़ों के भीतर एक नायाब चीज़ मिल गई। वो मटमैले-से, मिट्टी में लिथड़े कोई चार-पांच भारी-भारी सिक्के थे। मैं उन्हें लेकर सीधे भागा बाबूजी के पास और उनके हाथ में सारे सिक्के पकड़ा दिए। बाबूजी ने मुन्ना भइया को बुलवाया। भइया ने आकर पानी से धो-धोकर उन सिक्कों को साफ़ करने की कोशिश की, पर वो पूरी तरह साफ़ नहीं हुए। लेकिन उनकी बातों से मुझे इतना ज़रूर पता लग रहा था कि वे सिक्के काफ़ी क़ीमती और अनमोल हैं। उसके बाद नौकर को बुलाया गया। उससे बहुत पूछा गया कि ये सिक्के उसे कहां मिले, पर उसने नहीं बताया तो नहीं बताया। उस समय पीछे के साइड में सेप्टिक टैंक बन रहा था, हो सकता है, उसकी खुदाई के दौरान निकला हो; पर ऐसा होता तो पहले इसपर मज़दूरों का ध्यान पड़ता। जो भी हो, उस सिक्के का रहस्य उस नौकर की विदाई के साथ ही दफ़न हो गया, क्योंकि उसके बाद घर में कभी न मैंने उन सिक्कों को कहीं देखा, न ही किसी की ज़बान से उसकी कोई चर्चा सुनी।

                                                                       (मेरी पुस्तक तीस साल लम्बी सड़कसे.....)

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