रविवार, 10 दिसंबर 2023

MY BOOK-TEES SAAL LAMBI SADAK

 


मेरी पुस्तक- तीस साल लम्बी सड़कसे......

कड़ी-01

शब्दों का आकाश

यों मेरा बचपन कोई इतना दूसरों के बचपन से अलग भी नहीं था। उसमें भी किलकारियां थीं, शरारतें थीं, खेलकूद था, पढ़ाई थी और था अम्मा-बाबूजी के साथ, भाइयों का कठोर अंकुश। मेरा घर से बाहर जाकर आवारा लड़कों के साथ उछलकूद मचाना, लट्टू और गोली-कंचे खेलना, पतंग उडा़ना किसी को पसंद नहीं था। मुहल्ले के लड़के थे भी एक-से-एक बदमाश। पूरे दिन किसी न किसी से उनकी लड़ाई होती रहती थी और शाम होते-होते एक-दूसरे की मांएं लड़ने आ जाती थीं। पटना में यों मगही बोली जाती है, पर पटना सिटी की भाषा थोड़ी अजीब है। वहां हर नाम के साथ वालगाने का रिवाज़ है- जैसे डलडलवा, नरेसवा, चुनमुनवा और स्त्रीलिंग में जमनिया, कमलिया आदि। पर कुछ स्त्रीप्रधान नामों में पुरुषवाचक प्रत्यय वाजोड़ के पुकारने की परंपरा भी है- जैसे, मंजुवा या मंजुआ, रेणुआ आदि। पर डलडलवा, नरेसवा, चुनमुनवा-जैसे लड़के दिनभर उधम मचाते और पूरा मुहल्ला उनसे त्रस्त रहता। अब ऐसे लड़कों के साथ खेलने के लिए भले घर के लड़के को कौन जाने देता।

असल में दीवान मुहल्ला में पढ़ने-लिखने की संस्कृति बहुत दिखी नहीं। हालांकि वो मुहल्ला कभी पढ़ने-लिखने वालों की वजह से ही जाना जाता था, लेकिन मैंने अपने होशो-हवास में जो देखा, शायद वो उस मुहल्ले के पतन का समय था। वहां बाहर से आकर किसिम-किसिम के लोग बस गए थे और उनमें से ज़्यादातर लोगों के पास कोई काम नहीं होने से या तो वे दिनभर ताश खेलकर अपना समय काटते या ताड़ी पीकर घर में सोए पड़े मिलते। गंगा ब्रिजमें जिन लोगों की ज़मीन गई थी, उन्हें पातो का बाग़और हमाममें एलॉटमेंटहुआ था, पर उनके नहीं रहने से उन ज़मीनों पर अवांछित लोगों ने क़ब्ज़ा कर झाोपड़ियां बना ली थीं और किसी की हिम्मत नहीं थी कि वे अपनी ज़मीन उनसे ख़ाली करा सकें। शाम होते जब गलियों में अंधेरा पसरने लगता, उन झुग्गी-झोपड़ियों से हाथों में पानी का डब्बा या बोतल लिए जवान-बूढ़ी औरतों की कतारें, हमारे घरों के आसपास के खुले नालों पर अपनी शर्म को आगे से बड़ी बेशर्मी से ढंक, अपने घरों की समस्याएं गपिआने के साथ-साथ, अपनी शंकाओं से भी निवृŸा होने लग  जातीं। इस काम के लिए उन झुग्गी-झोपड़ियों से आने वाले बच्चों के लिए शर्म-जैसी चीज़ की कोई अहमियत नहीं थी, लिहाज़ा वे किसी भी वक़्त उन नालों के किनारे बिराजमान हो जाते और नालों में ही नहीं, उसके अगल-बगल काफ़ी गंदगी फैला कर उठते। पर इस मामले में, या किसी भी मामले में उन अवांछित लोगों से कोई वांछित सवाल नहीं पूछा जा सकता था।

 

एक वाकया मुझे याद आ रहा है। हमेशा की तरह मैदान के एक कोने में रघुवीर भइया और उनकी रमीकी मंडली जमी थी। मैदान के बीचोबीच क्रिकेट की पिचबनी थी, जिसपर हम प्रैक्टिस करते थे। हमसब भी स्टंप गाड़कर खेलने की तैयारी कर चुके थे। तभी रमी टीममें थोड़ी खलबली हुई। सिराज़ुद्दीन भइया मैदान से गुज़र रहे एक आदमी की ओर इशारा कर कह रहे थे, ‘‘ये तो डकैत रमेसर है... सरकार इसपर ईनाम भी रखी है... इसको पकड़ना चाहिए...।’’ उन्होंने हमलोगों को इशारा किया। हमलोगों ने स्टंप उखाड़ा और बैट-स्टंप लेकर सिराज़ुद्दीन भइया के पीछे-पीछे डकैत रमेसर को पकड़ने उसका पीछा करने लगे। हम लगभग उसके बिल्कुल क़रीब पहुंच चुके थे कि उसे हमारी भनक लग गई और अचानक उसने पिस्तौल निकाला और हमारे ऊपर तान दिया। हम सब जहां थे, वहीं ठिठक गए। फिर वो मुड़ा और भागने लगा, हम भी उसके पीछे भागे, लेकिन इस बार वो पिस्तौल तान कर खड़ा हो गया और बोला, ‘‘सिराजु़द्दीन, तुमको हमरा डर नहीं है का रे... भाग जा, नहीं तो तेरा पूरा ख़ानदान साफ़ हो जायेगा...।’’ ये सुनकर हमलोग तो रुक ही गए, सिराज़ भइया भी सहम गए। इसके बाद हमारी हिम्मत जवाब दे गई और हम लौट तो आये पर रमेसर का आतंक इतना था कि उसके बाद सिराज़ भइया महीनों अपने घर में नहीं सोते थे; ताश और रमी का खेल भी भइया-लोगों ने महीनों बंद रखा था। बाद में सुना कि रमेसर एनकाउंटर में मारा गया। पर इसमें कोई दो राय नहीं कि उस समय मुहल्ले में अपराध और अपराधी धीरे-धीरे पनपने लगे थे।

फिर भी, ऐसा नहीं कि वहां रहकर और पढ़कर किसी ने कोई मकाम या ऊंचा ओहदा नहीं हासिल किया। ऐसे लोग दो क़िस्म के थे- एक, जो पटना या बिहार से बाहर चले गए और दूसरे, जो रहे तो दीवान मुहल्ला में ही, पर सुबह-शाम की चौराहेबाज़ी और बैठकी-बतोलाबाज़ी छोड़ परिश्रम किया तथा सफलता हासिल की।.......

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