श्री रंजन का कहानी -संग्रह ‘चेहरे’ पढने का अवसर मिला . रंजन जब ये कहते हैं कि “उम्र के पचपनवें वर्ष में मैंने अपनी पहली कहानी लिखी -‘तो सलाम मेरे दोस्तों ’, सहसा विश्वास नहीं होता कि लेखक की ये स्वीकारोक्ति एक अतिरिक्त सौजन्यता के कारण है या अत्म्श्लाघापूर्ण , या फिर वाकई ये विनम्रता से भरी हुई सच्चाई है . लेकिन जैसे-जैसे एक-एक कहानी मेरे आगे खुलती गयी, मुझे यही लगा कि बात को बिना लाग-लपेट के कहना रंजन जी कि अपनी अदा है, जो इस संग्रह की प्रत्येक कहानी में हर जगह मौजूद है.
संग्रह की पहली कहानी ही- ‘तो सलाम मेरे दोस्तों ’- इस बात की गवाह है, जिसके मूल में यों तो भागलपुर का सांप्रदायिक दंगा है, परन्तु पूरी कहानी में फैंटेसी की एकतानता है, जो दंगे-जैसे गंभीर मुद्दे को उभरने नहीं देती. कहानी में 'प्लैनचेट' का ज़िक्र है, जिसके इर्द-गिर्द कहानीकार के यथार्थ दोस्तों के रेखाचित्र उभरते हैं. एक समय था, देवकीनंदन खत्री के ज़माने में, जब हिंदी कहानी-कला मूलतः फैंटेसी या प्रेमचंदीय आदर्शवाद के इर्द-गिर्द रहा करती थी; 'प्लैनचेट' के नाम से लोग प्रायः अनभिज्ञ नहीं थे, पर आज के ज़माने में नयी पीढी न तो इसके बारे में कुछ जानती है, ना ही इसपर विश्वास करने को तैयार होगी.
लेकिन इस कहानी की दो विशेषताएं ऐसी हैं, जिसके कारण ये श्रवणीय भी है, और पठनीय भी. सबसे पहली विशेषता ये कि इसमें दृश्यों और घटनाओं के विवरण इतने प्रामाणिक और प्रासंगिक रूप से हैं कि लगता है जैसे हम स्वयं उनके साक्षी रहे हों. बल्कि सच्चाई ही ये है कि कहानी में आये तमाम नाम और चरित्र यथार्थ हैं- "तो मंज़र है, शहर भागलपुर के चौराहे का....खलीफाबाद....और खलीफाबाद में स्थित मशहूर 'चित्रशाला'. (इस आलीशान दूकान के मालिक कहानीकार स्वयं हैं.)....."सामने चाय की दूकान पर लोग-बाग़ खड़े-खड़े कुल्ल्ह्ड में चाय पीते हुए बतिया रहे थे. उसकी बगल वाली दूकान के अन्दर बैठा लड़का मोबाइल फोन की रिपेरिंग करने में व्यस्त था. 'साउंड ऑफ़ म्यूजिक' नाम की टीवी की दूकान वाले ने सड़क के छोर तक फ्रिज और वाशिंग मशीन के ढेर लगा रखे थे."
इन यथार्थ विवरणों के कारण कहानी में आदि से अंत तक रोचकता बरकरार रहती है, क्योंकि इसमें प्रवाह है, बिम्ब्धर्मिता है और वर्णना की मौलिकता है. कहानी में फैंटेसी भी अंत में आता है, जब मशहूर कथाकार मंटो की आत्मा को 'प्लैनचेट' के माध्यम से बुलाया जाता है और उसके माध्यम से कहानी का आतंरिक अर्थ- दंगा, मज़हबी जुनून, कट्टरवादिता- आदि खुलता है. यहीं पर कहानी हांफने भी लगती है, जब कहानी का स्वर अचानक उपदेशात्मक हो जाता है; विशेषकर तब, जब उर्दू के लफ्जों का इस्तेमाल करते-करते मंटो एकाएक शुद्ध हिंदी के शब्दों का प्रयोग करने लगते हैं.
संग्रह की दूसरी कहानी ‘अक्सर उसके साथ ही ऐसा क्यों होता है ’, जैसा स्वयं लेखक की स्वीकारोक्ति है ,”इस कहानी के मूल में थे मेरे मित्र डॉ अमरेन्द्र ….भागलपुर के इक ग्रामीण अंचल में ये एक ऐसे कॉलेज में प्राध्यापक थे , जो अपनी अफ्फिलिअशन के लिए उस वक़्त प्रयत्नशील था . उस कॉलेज की त्रासदी , शोषण और प्राध्यापकों का संघर्ष …वास्तव में बेहद भयानक था और मुझसे एक कहानी की मांग करता था ”. कथाकार जब अपनी रचना -प्रक्रिया के बाबत कुछ कह देता है तो दूसरों के कहने की ज्यादा गुंजाइश नहीं होती . फिर भी , इस कहानी में एक अभावग्रस्त व्यक्ति की पीडा और अवसरवादी कुटिल लोगों की चालें प्रमुखता से उभर कर सामने आयी हैं . आज शोषण का शिकार सिर्फ निचला तबका ही नहीं हो रहा , बल्कि मध्यवर्ग का बुद्धिजीवी भी भुगत रहा है , ये इस कहानी से स्पष्ट है .
इसी प्रकार ‘पगला था वह ’ कहानी संवेदनशील लोगों को आज के ज़माने में मूर्ख समझे जाने के भाव को प्रदर्शित करती है , जहाँ कभी -कभी दूसरों की मदद करना एक अभिशाप बन जाता है और मदद करने वाला मुर्ख तथा पागल समझा जाता है . ये आज के यथार्थ को ‘व्यू फ़ाइन्दर’ से देखने की कोशिश है .
संग्रह की कहानी ‘शून्य में टंगा प्रश्न ’ मनोवैज्ञानिक धरातल का स्पर्श करती है . सच (डर) सबके मन के अन्दर होता है , और सभी उसे झुठलाना चाहते हैं . इसे मनोविज्ञान की भाषा में superego कहते हैं . ये हर व्यक्ति के भीतर होता है , जिसके चलते वह अपने को सर्वश्रेष्ठ और दूसरों को हीन समझता है .
‘चार अठन्नी ’ कहानी तो सीधे -सीधे प्रेमचंदीय परंपरा की कहानी लगती है , गांधीवाद का स्पर्श करती हुई . इस लिहाज़ से ये थोडी outdated लगती है और संग्रह की सबसे कमज़ोर कहानी भी .
संग्रह की अंतिम कहानी ‘ज़िन्दगी का नाटक ’ में बेटी की शादी के लिए चिंतित मध्यवर्गीय परिवार का व्यक्ति किसी प्रकार क़र्ज़ लेकर व्यवस्ता करता है तब भी उसकी आशाएं पूरी नहीं होतीं , इसका चित्रण अत्यंत नाटकीय ढंग से किया गया है . वस्तुतः इस कहानी में भरपूर नाटकीय तत्व हैं , इसलिए ये नाटक के ज्यादा करीब है .
कुल मिलाकर संग्रह की कहानियों में सहजता है , सरलता है , बेबाकी है . इनमें आज का यथार्थ परोसा गया है , जिनमें अनावश्यक चौंकाने वाले तत्व अथवा भाषा की कलाकारी नहीं है .