सोमवार, 11 दिसंबर 2023

समीक्षा: उपन्यास ‘ताली’- लेखक- डॉ किशोर सिन्हा; समीक्षक- डॉ प्रतिभा जैन

 

समीक्षा: उपन्यास ताली

लेखक- डॉ किशोर सिन्हा

                  डॉ प्रतिभा जैन


…… हूँ ब्रह्म की संतान

फिर क्यों ? अञ्चींन्हीं सृष्टि में

रहती हूं तुम्हारे आस-पास

क्यूँ ? फिर रहती अनजानी...

 

रक्त-मांस-आत्मा से

तुझमें... मुझमें फर्क नहीं

फिर क्यों ? घर-आँगन में

खुद ठहर पाती नहीं...

 

भूल जाते मां-बाप भैया-भाभी

दर-दर ठोकर खाती हूं

भीख मांगकर, दे आशीष   

जीवन यापन करती हूं

 

गूंजता चहुं-ओर स्वर  

किम् नर:, किम् नर:

क्या तुम नर हो ? या नारी ?  

किन्नर... किन्नर... ताली... ताली... 

                              इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने की ईमानदार कोशिश है उपन्यास ताली”. लेखक डॉ. किशोर सिन्हा ने स्वभावत: इसे नए शिल्प के साथ रचा है. उपन्यास में सीधे-सीधे प्रश्न है और उतने ही तीखे-तीखे उत्तर जो पाठकों के लिए अश्रुत-पूर्व तो हैं ही... चौंकाते भी हैं; परिणामत: हम सत्य के उजाले में, पीड़ा के एकांत-अंधेरों में छरछराती चीख़ों से स्तब्ध रह जाते है, रूँध जाता हैं कंठ हमारा, मूक हो जाती है वाणी हमारी. 

                              आह ! जो परिवार का बच्चा है भाई-बहन, चाचा-मामा-ताऊ हो सकता था, उसे जीते जी पदच्युत करके भुला देते है... भुला देते है उसका नाम, मिटा देते हैं अपनों के बीच से उसका अस्तित्व... उसकी छाया अपवित्र हो जाती है. उसका नाम स्वयं से जोड़ने पर हम लज्जित होते है. 

                              तथापि परित्यक्ता का जीवन जीते वृहन्नला, किन्नर, किंपुरुष, नामर्द, हिजड़ा, छक्का, मामा का संबोधन भी उन्हें तोड़ नहीं पाता. उनका भी एक परिवार है दूर... कहीं दूर बसा हुआ, जो उन्हें अपनाते हैं. तथाकथित गुरु ही उनकी शरण है. उनकी भी इच्छाएं हैं, स्वप्न है. वे जानते हैं संबंधों को प्रगाढ़ता से निभाना, टूट कर जुड़ जाना. वे गटक लेते हैं अपनी उपेक्षा को... निराशा में भी उठ खड़े होते हैं. सह लेते हैं चोट विधाता की...

                              हाँ अब वे धैर्य से पहचान रहे हैं अपना अस्तित्व, अनेकों ने पकड़ ली है शिक्षा की लाठी. वे सहारा बनते हैं डगमगाते समाज के लोगों का, वे कर रहे हैं नौकरी उच्च पदों पर, जी रहे हैं बेपरवाह स्वाभिमान से अपना जीवन. बिना थके लड़ रहे हैं अपने होने का युद्ध... चल रहे हैं अपने लक्ष्य की ओर, आपसे बस इतनी गुजारिश है कि आप उनके रास्ते में रोड़े न बने, उपहास न करें. अगर हो सके तो उन्हें उबार लें. ताली उनकी पहचान नहीं... मनुष्य होना उनकी पहचान है.                

                              इन सभी परिस्थितियों की पड़ताल डॉ. सिन्हा जी ने सश्रम प्रत्यक्ष रूप से की है. इस रूप में उनका उपन्यास काल्पनिक या बुद्धि-विलास का परिचायक नहीं, वरन् ठोस धरातल पर नंगे पैरों में छाले लिए, आंखों में प्रश्नों की बौछार लिए अपने ही बंधुओं की कथा है.

                              ये सच है कि यह यक्ष-प्रश्न बनकर हमारे खड़ा है, उत्तर अभी तक अनुत्तरित है. डॉ. सिन्हा को साधुवाद कि उन्होंने इन अलक्ष्य जिंदगी को प्रकाशित करने का प्रयत्न किया, अब इस उजाले में पाठक की बारी है उनके प्रश्नों का हल ढूंढने की. शुभमस्तु !

                                                                                                                                डॉ प्रतिभा जैन




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